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१, ९-९, ८२.] चूलियाए गदियागदियाए णेरइयाणं गदीओ [ ४४९ सहावदो चेव । एत्थ वि सहावदो चेव णागच्छंति त्ति किण्ण इच्छिज्जदि । किं च सुत्तं णाम पमाणं बाहाइक्कंतं, इंदिय णोइंदियणाणाणीव । ण च इंदिएहि बाहाइक्कंतेहि दिद्वत्थम्मि पमाणाणुसारिणो संदेहं कुणंता अत्थि ? सच्चं पमाणेण दिद्वत्थम्हि पमाणतरेण ण परिक्खा पयट्टइ, किंतु एदस्स वयणस्स पमाणत्तं ण णव्यदि त्ति चे ण, असच्चकारणसव्वविजुत्तैजिणवयणविणिग्गयस्स वयणस्स अप्पमाणत्तविरोहादो। तदा पमाणमेदं। तेणेव कारणेण ण पमाणंतरेण परिक्खणिज्जपिदि ।
गम्भोवक्कंतिएसु आगच्छंता पज्जत्तएम् आगच्छंति, णो अपज्जत्तएसु॥ ८१॥
सुगममेद।
पज्जत्तएसु आगच्छंता संखेज्जवस्साउएसु आगच्छंति, णो. असंखेज्जवस्साउएसु ॥ ८२ ॥
शंकाका समाधान- तो फिर यहां भी नारकी जीव सम्मूञ्छिम तिर्यंचोंमें स्वभावसे ही नहीं आते हैं, ऐसा क्यों नहीं अभीष्ट मान लेते : तथा, सूत्र स्वयं इन्द्रिय और नोइन्द्रियजनित ज्ञानोंके सदृश वाधारहित प्रमाण है। वाधारहित इन्द्रियों द्वारा देखे गये पदार्थमें प्रमाणानुसारी विद्वान लन्देह नहीं करते।
शंका-यह सत्य है कि प्रमाणसे देखे गये पदार्थमें प्रमाणान्तर द्वारा परीक्षा नहीं की जाती, किन्तु प्रस्तुत वचनका तो प्रमागत्व ज्ञात नहीं है ?
समाधान नहीं, क्योंकि असत्र के समस्त कारण (रागद्वेषादि ) से रहित जिनेन्द्र के मुखसे निकले हुए वचनका अप्रमाणत्वसे विरोध है। अतः यह सूत्र प्रमाण है और इसी कारणसे प्रमाणान्तर द्वारा उसकी परीक्षा उचित नहीं है।
पंचेन्द्रिय संज्ञी गर्भोएक्रान्तिक तिथंचोंमें आनेवाले नारकी जीव पर्याप्तकोंमें ही आते हैं, अपर्याप्तकोंमें नहीं ॥ ८१ ॥
यह सूत्र सुगम है।
पंचेन्द्रिय संज्ञी ग पक्रान्तिके पर्याप्त तिर्यंचोंमें आनेवाले नारकी जीव संख्यात वर्षकी आयुवाले जीवोंमें ही आते हैं, असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें नहीं ॥८२॥
१ आ-कप्रत्योः सव्वाविज्जुत्तिण', अप्रतौ सवाविजुत्तिण' इति पाठः ।
२ अणुवकयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जुगप्पवरा । जियरागदोसमोहा य णण्णहावाइणो तेणं ।। व्याख्याप्रशप्तेरभयदेवीयवृत्ती उद्धृता गाथा. १, ३, ३८.
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