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________________ छक्खंडागमे जीवाण hi सम्मत्तेण अधिगदा सम्मत्तेण णीति ॥ ७४ ॥ सुगममेदं । अणुदिस जाव सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवेसु सम्मत्तेण अधिगदा नियमा सम्मत्तेण चेव णीति ॥ ७५ ॥ ४४६ ] सुगममेदं । पंचिदियतिरिक्ख- मणुस अपज्जत्ताणं किमहं णिग्गमण-पवेसा ग उत्ता ? ण, मिच्छादिट्ठी मोत्तूण अण्णेसिं तत्थ णिग्गम-पवेसाभावादो । तस्स वि उत्ते विणा अवगमादो | रइयमिच्छारट्टी सासणसम्माइट्टी णिरयादो उव्वट्टिदसमाणा कदि गदीओ आगच्छंति ? ॥ ७६ ॥ [ १, ९–९, ७४. कितने ही मनुष्य और मनुष्य पर्याप्तक एवं उक्त सौधर्मादिक स्वर्गेके जीव सम्यक्त्व सहित जाकर सम्यक्त्वके साथ ही वहांसे निकलते हैं ॥ ७२ ॥ यह सूत्र सुगम है | अनुदिश विमानों से लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों तक में सम्यक्त्वके साथ प्रवेश करनेवाले जीव नियमसे सम्यक्त्व सहित ही निकलते हैं ।। ७५ ।। यह सूत्र सुगम है 1 शंका - अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यच और अपर्याप्तक मनुष्य, इन दोके निर्गम और प्रवेशका कथन क्यों नहीं किया गया । समाधान- नहीं, क्योंकि उन दोनों जीवसमासोंमें मिध्यादृष्टियोंके सिवाय अन्य जीवोंका न निर्गमन होता है और न प्रवेश । और यह बात विना कहे भी जानी जा सकती है । नारकी मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव नरकसे निकलकर कितनी गतियों में आते हैं ? ॥ ७६ ॥ १ प्रतिषु ' श्रेण' इति पाठः । २ अप्रतौ ' जंतेण ' आ-कप्रत्योः 'ज्जत्तेण ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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