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________________ १, ९-९, ७३. ] चूलियाए गदियागदियाए पवेस-णिग्गमणगुणट्ठाणाणि ४४५ वस्साउएसु ण संभवदि, उवसमसेडीदो ओदिण्णस्स सासणगुणगमणाभावा । एत्थ पुण संखेज्जासंखेज्जवस्साउए मोत्तूण जेण भणिदं तेणेदं घडदे । संभव नहीं होता, क्योंकि उपशमश्रेणीसे उतरे हुए मनुष्यका सासादन गुणस्थानमें गमन नहीं माना गया। किन्तु यहांपर अर्थात् सूत्र में चूंकि संख्यात व असंख्यात वर्षकी आयुका उल्लेख छोड़कर कथन किया गया है इससे वह कथन घटित हो जाता है। विशेषार्थ-अन्तरप्ररूपणाके सूत्र ७ में बतलाया जा चुका है कि सासादनसम्यग्दृष्टिका जघन्य अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। इसका कारण धवलाकारने यह बतलाया है कि सासादनसे मिथ्यात्वमें आये हुए जीवके जबतक सम्यक्त्व और सम्याग्मथ्यात्व प्रकृर्तियोंकी उद्वेलनधात द्वारा सागरोपम या सागरोपमपृथक्त्वमात्र स्थिति नहीं रह जाती तब तक वह जीव पुनः उपशम सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकता जहांसे कि सासादनभावकी पुनः उत्पत्ति हो सके। और उद्वेलनघात द्वारा उक्त क्रियाके होने में कमसे कम पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण काल लगता ही है। अतएव यही कालप्रमाण सासादनसम्यक्त्वका जघन्य अन्तर होता है। प्रस्तुत प्रकरण में प्रश्न यह है कि जो जीव देव या नरक गतिसे मनुष्यभवमें सासादन गुणस्थान सहित आया है वह सासादन गुणस्थान सहित ही मनुष्यगतिसे किस प्रकार निर्गमन कर सकता है। धवलाकारने वह इस प्रकार बतलाया है कि देवगतिसे सासादन गुणस्थान सहित मनुष्यगतिमें आकर व पल्योपमके असंख्यातवें भागका अन्तरकाल समाप्त कर उपशमसम्यक्त्वी हो सासादन गुणस्थानमें आकर मरण करनेवाले जीवके उक्त बात घटित हो जाती है। पर यह बनेगा केवल असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्योंमें, क्योंकि संख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्यों में उक्त उद्वेलनघातके लिये आवश्यक पल्योपमका असंख्यातवां भाग काल प्राप्त ही नहीं हो सकेगा। यह व्यवस्था भूतवलि आचार्यके मतानुसार है। किन्तु कषायप्राभृतके चूर्णिसूत्रोंके कर्ता यतिवृषभाचार्यके मतानुसार सासादनसम्यक्त्व सहित मनुष्यगतिमें आया हुआ जीव मिथ्यादृष्टि होकर पुनः द्वितीयोपशमसम्यक्त्वी हो उपशमश्रेणी चढ़ पुनः सासादन होकर मर सकता है और इसलिये यह बात संख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्यों में भी घटित हो सकती है। किन्तु उपशमश्रेणीसे उतरकर सासादन गुणस्थानमें जाना भूतवलि आचार्य नहीं मानते और इसलिये उनके मतसे सम्यक्त्व सहित आकर सासादन सहित घ सासादन सहित आकर सासादन सहित मनुष्यगतिसे निर्गमन करना संख्यात वर्षायुष्कोंमें संभव नहीं। १ उवसमसेढीदो पुण ऑदिण्णो सासणं ण पांउणदि। भूदबलिणाहणिम्मलमुत्तरस फुडौवदेसेण || लब्धि. ३४७. २ अ-कप्रत्योः ‘सोत्तूण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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