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________________ ४४२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-९, ६१. पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीयो मणुसिणीयो भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसियदेवा देवीओ सोधम्मीसाणकप्पवासियदेवीओ च मिच्छतेण अधिगदा केइं मिच्छत्तेण णीति ॥ ६१ ॥ केई मिच्छत्तेण अधिगदा सासणसम्मत्तेण णीति ॥ ६२॥ केई मिच्छत्तेण अधिगदा सम्मत्तेण णीति ॥ ६३ ॥ एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । सव्वत्थ सम्मामिच्छत्तेण णिग्गमो पवेसो वा णत्थि, तस्स मरणुप्पत्तीणमसंभवादो। केइं सासणसम्मत्तेण अधिगदा मिच्छत्तेण णीति ॥ ६४ ॥ केइं सासणसम्मत्तेण अधिगदा सम्मत्तेण णीति ॥६५॥ ............ पंचन्द्रिय तिर्यंच योनिनी, मनुष्यनी, भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देव तथा देवियां एवं सौधर्म-ईशानकल्पवासिनी देवियां मिथ्यात्व सहित अपनी अपनी गतिमें प्रवेश करके कितने ही मिथ्यात्व सहित ही वहांसे निकलते हैं ॥ ६१॥ कितने ही मिथ्यात्व सहित प्रवेश करके अपनी गतिसे सासादन सम्यक्त्वके साथ निकलते हैं ॥ ६२ ॥ कितने ही मिथ्यात्व सहित प्रवेश करके सम्यक्त्वके साथ उस गतिसे निकलते हैं ॥ ६३ ॥ ये सूत्र सुगम हैं। सब गतियोंमें सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानके साथ न निर्गमन होता है और न प्रवेश, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वके साथ मरण और उत्पत्ति दोनों असंभव हैं। कितने ही जीव सासादनसम्यक्त्वके साथ पूर्वोक्त गतियोंमें आकर मिथ्यात्व सहित वहांसे निकलते हैं ॥ ६४ ॥ कितने ही जीव सासादनसम्यक्त्वके साथ पूर्वोक्त गतियों में आकर सम्यक्त्व सहित वहांसे निकलते हैं ॥ ६५ ॥ ............... १ अ-आप्रयोः 'जोणीयो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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