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________________ १, ९-९, ४५. ] चूलियाए गदियागदियाए पवेस-णिग्गमणगुणट्ठाणाणि [४३७ अणुदिस जाव सबट्टसिद्धिविमाणवासियदेवा सब्वे ते णियमा सम्माइट्ठि त्ति पण्णत्ता ॥४३॥ सुगममेदं । . णेरड्या मिच्छत्तेण अधिगदा केई मिच्छत्तेण णीति ॥ ४४ ॥ अधिगदा पइट्ठा गदा इदि एयट्ठा। णीति णिस्सरंति णिग्गच्छंति णिप्पीडंति इदि एयट्ठो । केई केचिदित्यर्थः । मिच्छत्तेण सह णिरयगदिं पइस्सिय पुणो तत्थ मिच्छत्तेण वा सम्मत्तेण वा अच्छिय अवसाणे मिच्छत्तेण सह केई णिप्पीडंति त्ति' उत्तं होई।। केइं मिच्छत्तेण अधिगदा सासणसम्मत्तेण णीति ॥४५॥ अनुदिशोंसे लगाकर सर्वार्थसिद्धि तकके विमानवासी देव सभी नियमसे सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, ऐसा उपदेश पाया जाता है ॥४३॥ यह सूत्र सुगम है। नारकी जीव मिथ्यात्व सहित नरकमें जाते हैं और उनमें से कितने मिथ्यात्व सहित ही नरकसे निकलते हैं ॥४४॥ __ अधिगत, प्रविष्ट और गत, ये शब्द एकार्थक ही हैं। णीति अर्थात् निस्सरण करते हैं, निर्गमन करते हैं, निप्पीडन करते हैं, इन सबका एक ही अर्थ होता है । 'केई' का अर्थ है केचित् याने कितने ही। मिथ्यात्वके साथ नरकगतिमें प्रवेश करके पुनः वहां मिथ्यात्व सहित अथवा सम्यवत्व सहित रहकर अन्तमें मिथ्यात्व सहित ही कितने ही जीव वहांसे निकलते हैं, इस प्रकारका अर्थ यहां कहा गया है। कितने ही जीव मिथ्यात्व सहित नरकमें जाकर सासादनसम्यक्त्व सहित वहांसे निकलते हैं ॥४५॥ .............. १ जिणमहिमदसणेणं केइं जादीतुमरणादो वि । देवद्धिदसणेण य ते देवा देसणवसेणं ॥ गेण्हंते सम्म णिबाणभुदयसाहणणिमित्तं । दुव्बारगहिरसंसारजलहिणोत्तारणोवायं ॥ णवरि हु णवगेवज्जा एदे देवड़िवज्जिदा होति । उवरिमचोद्दसठाणे सम्माइट्ठी सुरा सब्वे ॥ ति. प. ८, ६७६-६७८. अनुदिशानुत्तरविमानवासिनामियं कल्पना न संभवति, प्रागेव गृहीतसम्यक्त्वानां तत्रोत्पत्तेः । स. सि. १, ७. २ प्रथमायामुत्पद्यमाना नारका मिथ्यात्वेनाधिगताः केचिन्मिथ्यात्वेन नियन्ति । त. रा. ३, ६. ३ अप्रती णिप्पीडंति इदि एयट्ठो त्ति' इति पाठः।। ४ मिथ्यात्वेनाधिगताः केचित् सासादनसम्यक्त्वेन निर्यान्ति । त. रा. ३, ६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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