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४३४] छक्खडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ९-९, ३८. देविद्धिदसणं पुण कालंतरे चेव होदि, तेण ण दोण्हमेयत्तं । एसो अत्थो गेरइयाणं जाइस्सरण-वेयणाभिभवणाणं पि बत्तव्यो ।)
एवं भवणवासियप्पहुडि जाव सदर-सहस्सार-कप्पवासियदेवा त्ति ॥ ३८॥ .
सुगममेदं ।
(आणद-पाणद-आरण-अच्चुदकप्पवासियदेवेसु मिच्छादिट्ठी कदिहि कारणेहिं पढमसम्मत्तमुप्पादेंति ? ॥ ३९ ॥
सुगममेदं पुच्छासुत्तं ।
तीहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पा-ति- केइं जाइस्सरा, केइं सोऊण, केइं जिणमहिमं दट्टण ॥ ४०॥)
होने के समय से अन्तर्मुहूर्तकाल के पश्चात् ही होता है । इसलिये भी उन दोनों कारणों में एकत्व नहीं है । यही अर्थ नारकियोंके जातिस्मरण और वेदनाभिभवन रूप कारणों में विवेकके लिये भी कहना चाहिये।
इस प्रकार भवनवासी देवोंसे लगाकर शतार-सहस्रार कल्पवासी देव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं ॥ ३८॥
यह सूत्र सुगम है।
आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पोंके निवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि कितने कारणों से प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं ? ॥ ३९ ॥
यह इच्छासूत्र सुगम है।
पूर्वोक्त आनतादि चार कल्पोंके देव तीन कारणोंसे प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं- कितने ही जातिस्मरणसे, कितने ही धर्मोपदेश सुनकर और कितने ही जिनमहिमाको देखकर ॥ ४० ॥
१ भवणेमु समुप्पण्णा पज्जतिं पाविदूण छन्भेयं । जिणमहिमदंसणेणं केई देविद्धिदसणदो ॥ जादीए सुमरणेणं वरधम्मप्पबोहणावलद्धीए। गेण्हंते सम्मत्तं दुरंतसंसारणासकरं ॥ ति. प. ३, २३९-२४०. देवानां केषाश्चिज्जातिस्मरणं केषाञ्चिद्धर्मश्रवणं केषाञ्चिन्जिनमहिमदर्शनं केषाश्चिद्देवर्द्धिदर्शनम् । एवं प्रागानतात । स.सि. १,७.
२ आनतप्राणतारणाच्युतदेवानां देवर्द्धिदर्शनं मुक्तवाऽन्यत्रितयमप्यस्ति । स. सि. १, ७. देवा मवन
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