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________________ १,९-९, १४.] चूलियाए गदियागदियाए सम्मत्तुप्पादणकारणाणि [४३१ उत्तं', तं हि एत्थेव दट्टव्वं, जाइस्सरण-जिणबिंबदसणेहि विणा उप्पज्जमाणणइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो। . देवा मिच्छाइट्ठी पढमसम्मत्तमुप्पादेति ॥ ३१ ॥ कुदो ? तत्थ पढमसम्मत्तजोग्गतिविहकरणपरिणामाणमुवलंभा। उप्पादेंता कम्हि उप्पादेति ? ॥ ३२॥ सुगममेदं पुच्छासुतं। पज्जत्तएसु उप्पादेंति, णो अपज्जत्तएसु ॥ ३३॥ कुदो ? अपज्जत्तएसु पढमसम्मत्तुप्पत्तीए अच्चंताभावेसु तदुप्पत्तिविरोहादो। पज्जत्तएसु उप्पाएंता अंतोमुहुत्तप्पहुडि जाव उवरि उप्पाएंति, णो हेट्टदो ॥ ३४॥ पूर्वोक्त कारणोंसे उत्पन्न हुए सम्यक्त्वमें ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिये, क्योंकि, जातिस्मरण और जिनबिम्बदर्शनके विना उत्पन्न होनेवाला नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व असंभव है। देव मिथ्यादृष्टि प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं ॥३१॥ क्योंकि, मिथ्यादृष्टि देवोंमें प्रथम सम्यक्त्वके योग्य तीन प्रकारके करणपरिणाम पाये जाते हैं। प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाले मिथ्यादृष्टि देव किस अवस्थामें उत्पन्न करते हैं ? ॥ ३२ ॥ यह पृच्छासूत्र सुगम है। प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाले मिथ्यादृष्टि देव पर्याप्तकोंमें उत्पन्न करते हैं, अपर्याप्तकोंमें नहीं ॥ ३३॥ क्योंकि, अपर्याप्तकोंमें प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका अत्यन्ताभाव है, और इसलिये उनमें उसकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है । पर्याप्तकोंमें प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाले मिथ्यादृष्टि देव अन्तर्मुहूर्तकालसे लेकर ऊपर उत्पन्न करते हैं, उससे नीचेके कालमें नहीं ॥ ३४ ॥ --......................... २ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥ तत्त्वार्थसूत्र १, २-३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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