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छक्खडागमे जीवद्वाणं
[ १, ९-९, ३०.
जिणमहिमं दट्ठण विकेई पढमसम्मत्तं पडिवज्जंता अत्थि तेण चदुहि कारणेहि पढमसम्मत्तं पडिवज्जति त्ति वत्तव्यं ? ण एस दोसो, एदस्स जिणबिंब दंसणे अंतभावादो। अथवा मणुसमिच्छाइट्ठीणं गयणगमण विरहियाणं चउव्विहदेवणिकाएहि गंदीसरजिणवर-पडिमाणं कीरमाणमहामहिमावलोयणे संभवाभावा । मेरुजिणवरंमहिमाओ विजाधरमिच्छादिट्ठिणो पेच्छंति त्ति एस अत्यो ण वत्तव्त्रओ त्ति केई भणति । तेण पुव्वुत्तो चेव अत्थो घेत्तव्यो । लद्धिसंपण्णरिसिदंसणं पि पढमसम्मत्तप्पत्तीए कारणं होदि, तमेत्थ पुध किण भण्णदे ? ण, एदस्स वि जिगबिंबदंसणे अंतरभावादो । उज्जंतचंपा - पावाणयरादिदंसणं पि एदेणेव घेत्तव्यं । कुदो ? तत्थतणजिणबिंबदंसण- जिणणिव्वुइगमणकहणेहि विणा पढमसम्मत्त गहणाभावा ] णइसग्गियमवि पढमसम्मत्तं तच्चट्ठे
शंका - जिनमहिमाको देखकर भी कितने ही मनुष्य प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करते हैं, इसलिये चार कारणोंसे मनुष्य प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करते हैं, ऐसा कहना चाहिये ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि जिनमहिमादर्शनका जिनविस्वदर्शन में अन्तर्भाव हो जाता है । अथवा, मिथ्यादृष्टि मनुष्यों के आकाशमें गमन करनेकी शक्ति न होने से उनके चतुर्विध देवनिकायोंके द्वारा किये जानेवाले नंदीश्वर द्वीपवर्ती जिनेन्द्रप्रतिमाओंके महामहोत्सवका देखना संभव नहीं है, इसलिये उनके जिनमहिमादर्शनरूप कारणका अभाव है । किन्तु मेरूपर्वतपर किये जानेवाले जिनेन्द्र महोत्सवको विद्याधर मिथ्यादृष्टि देखते हैं, इसलिये उपर्युक्त अर्थ नही कहना चाहिये, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । अतएव पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना योग्य है ।
शंका - लब्धिसम्पन्न ऋषियोंका दर्शन भी तो प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण होता है, अतएव इस कारणको यहां पृथक् रूपसे क्यों नहीं कहा ?
समाधान- नहीं कहा, क्योंकि लब्धिसम्पन्न ऋषियोंके दर्शनका भी जिनबिम्बदर्शन में ही अन्तर्भाव हो जाता है ।
ऊर्जयन्त पर्वत तथा चम्पापुर व पावापुर आदिके दर्शनका भी जिनबिम्बदर्शन के भीतर ही ग्रहण कर लेना चाहिये, क्योंकि, उक्त प्रदेशवर्ती जिनबिम्बोंके दर्शन तथा जिनभगवान्के मोक्षगमनके कथन के विना प्रथम सम्यक्त्वका ग्रहण नहीं हो सकता ।
तत्त्वार्थसूत्र में नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्वका भी कथन किया गया है, उसका भी
कैई केह जिणिंदस्स महिमदंसणदो । जिणबिंबदंसणेणं उवसमपहुदीणि केइ गण्हति ॥ ति. पं. ४, २९५५-२९५६. मनुष्याणामपि तथैव । स. सि. १, ७.
१ प्रतिषु ' जिणहर ' इति पाठः ।
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