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________________ १, ९-९, ३०.] चूलियाए गदियागदियाए सम्मत्तुप्पादणकारणाणि [४२९ कुदो ? अपज्जत्तभावस्स पढमसम्मत्तुप्पत्तीए अच्चंताभावादो । पज्जत्तएसु उप्पादेंता अट्ठवासप्पहुडि जाव उवरिमुष्पादेंति, णो हेट्टादो ॥२७॥ कुदो ? पज्जत्तपढमसमयप्पहुडि जाव अट्ठ वस्साणि त्ति ताव एदिस्से अवत्थाए पढमसम्मत्तुप्पत्तीए अच्चंताभावस्स अवट्ठाणादो एवं जाव अड्डाइज्जदीव-समुद्देसु ॥ २८ ॥ सुगममेदं । मणुस्सा मिच्छाइट्ठी कदिहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेंति ? ॥२९॥ एर्द कारणसंखाविसयं पुच्छासुत्तं सुगमं । (तीहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेंति-- केइं जाइस्सरा, केइं सोऊण, केइं जिणबिंबं दट्टण ॥ ३०॥ क्योंकि, अपर्याप्त अवस्थामें प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका अत्यन्ताभाव है। पर्याप्तकोंमें प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले गर्भोपक्रान्तिक मिथ्यादृष्टि मनुष्य आठ वर्षसे लेकर ऊपर किसी समय भी उत्पन्न करते हैं, उससे नीचके कालमें नहीं ॥ २७॥ इसका कारण यह है कि पर्याप्तकालके प्रथम समयसे लगाकर आठ वर्ष पर्यन्तकी अवस्थामें प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके अत्यान्ताभाव का नियम है। इस प्रकार अढ़ाई द्वीप-समुद्रोंमें मिथ्यादृष्टि मनुष्य प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं ॥२८॥ यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि मनुष्य कितने कारणोंसे प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं ? ॥२९॥ मिथ्यादृष्टि मनुष्यों में प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके कारणोंकी संख्यासम्बन्धी यह पृच्छासूत्र सुगम है। . मिथ्यादृष्टि मनुष्य तीन कारणोंसे प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैंकितने ही मनुष्य जातिस्मरणसे, कितने ही धर्मोपदेश सुनकर, और कितने ही जिनबिम्बके दर्शन करके ॥ ३०॥ २ केइ पडिबोहणेणं केइ सहावेण नासु भूमीसुं। दट्ठणं सुदुक्खं केइ मणुस्सा बहुपयारं ॥ जादिभरणेण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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