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४२८] छक्खंडागमे जीवट्ठाण
[१, ९-९, २३. णिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसणादो । तथा चोक्तं
, दर्शनेन जिनेन्द्राणां पापसंघातकुंजरम् ।।
- शतधा भेदमायाति गिरिर्वज्रहतो यथा ॥ १ ॥ सेसं सुगमं । मणुस्सा मिच्छादिट्ठी पढमसम्मत्तमुप्पादेति ॥ २३॥ मणुसेसु पढमसम्मत्तुप्पत्तीणिमित्ततिविहकरण परिणामाणं संभवादो। सेसं सुगमं । उप्पादेंता कम्हि उप्पादेति ? ॥ २४ ॥ गम्भोवक्क्रतियादिभेदमक्खिय एदस्स पुच्छासुत्तस्स अवयारो । गम्भोवतंतिएसु पढमसम्मत्तमुप्पा-ति, णो सम्मुच्छिमेसु ॥२५॥ पढमसम्मत्तस्स अच्चंताभावस्स अवठ्ठाणादो । सेसं सुगमं ।
गम्भोवतंतिएसु उप्पादेंता पज्जत्तएमु उप्पादेति, णो अपज्जत्तएसु ॥ २६ ॥
कर्मकलापका क्षय देखा जाता है, जिससे जिनविम्बका दर्शन प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण होता है । कहा भी है -
जिनेन्द्रोंके दर्शनसे पापसंघातरूपी कुंजरके सौ टुकड़े हो जाते हैं, जिस प्रकार कि वज्रके आघातसे पर्वतके सौ टुकड़े हो जाते हैं ॥ १ ॥
शेष सूत्रार्थ सुगम है। मिथ्यादृष्टि मनुष्य प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं ।। २३॥
क्योंकि, मनुप्यों में प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके निमित्तभूत तीन प्रकारके करणपरिणामोंका होना संभव है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले मिथ्यादृष्टि मनुष्य किस अवस्थामें उत्पन्न करते हैं ? ॥ २४॥ ___ गर्भोपक्रान्तिकादि भेदकी अपेक्षा करके इस पृच्छासूत्रका अवतार हुआ है।
मिथ्यादृष्टि मनुष्य ग पक्रान्तिकोंमें प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं, सम्मूछिमोंमें नहीं ॥२५॥
क्योंकि, सम्मूछिम जीवोंमें प्रथम सम्यक्त्वके अत्यन्ताभावका नियम है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
गर्भोपक्रान्तिकोंमें प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले मिथ्यादृष्टि मनुष्य पर्याप्तकोंमें ही उत्पन्न करते हैं, अपर्याप्तकोंमें नहीं ॥ २६ ॥
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