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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-९, ११. सुगममेदं हि पुच्छासुत्तं । दोहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेति ॥ ११ ॥ एवं पि सुत्तं सुगमं । केइं जाइस्सरा, केइं वेयणाहिभूदा ॥ १२ ॥
धम्मसवणादो पढमसम्मत्तस्स तत्थ उप्पत्ती णत्थि, देवाणं तत्थ गमणाभावा । तत्थतणसम्माइद्विधम्मसवणादो पढमसम्मत्तस्स उप्पत्ती किण्ण होदि ति वुत्ते ण होदि, तेसिं भवसंबंधेण पुव्ववेरसंबंधेण वा परोप्परविरुद्धाणं अणुगेज्झणुग्गाहयभावाणमसंभवादो।
तिरिक्खमिच्छाइट्ठी पढमसम्मत्तमुप्पादेति ॥ १३॥ तत्थ पढमसम्मत्तकारणतिविहकरणाणं संभवादो । सेसं सुगमं ।
यह पृच्छासूत्र सुगम है।
नीचेकी चार पृथिवियोंमें नारकी मिथ्यादृष्टि जीव दो कारणोंसे प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं ॥११॥
यह सूत्र भी सुगम है।
कितने ही जीव जातिस्मरणसे और कितने ही वेदनासे अमिभूत होकर सम्यक्त्वकी उत्पत्ति करते हैं ॥१२॥
नीचेकी चार पृथिवियोंमें धर्मश्रवणके द्वारा प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति नही होती, क्योंकि वहां देवोंके गमनका अभाव है।
शंका-नीचेकी चार पृथिवियोंमें विद्यमान सम्यग्दृष्टियोंसे धर्मश्रवणके द्वारा प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति क्यों नही होती ?
समाधान--ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि नहीं होती, क्योंकि भवसम्बन्धसे या पूर्व वैरके सम्बन्धसे परस्पर विरोधी हुए नारकी जीवोंके अनुगृह्य-अनुग्राहक भाव उत्पन्न होना असंभव है।
तिथंच मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं ॥ १३ ॥
क्योंकि तिर्यंचों में प्रथम सम्यक्त्वके कारणभूत तीनों प्रकारके करण संभव हैं। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
१ पंकपहापहुदीणं णारइया तिदसबोहणेण विणा । सुमरिदजाईदुक्खप्पहदा गेण्हंति सम्मत्तं ॥ ति. प. २, ३६१. चतुर्थीमारभ्य आ सप्तम्या नारकाणां जातिस्मरणं वेदनाभिभवश्च । स. सि. १, ७.
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