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________________ . ४२२१ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-९, ८. केइं जाइस्सरा, केई सोऊण, केइं वेदणाहिभूदा ॥८॥ सव्वे णेरइया विभंगणाणेण एक्क-दो-तिण्णिअदिभवग्गहणाणि जेण जाणंति तेण सव्वेसिं जाईभरत्तमत्थि ति सव्वणेरइएहि सम्मादिट्ठीहि होदधमिदि ! ण एस दोसो, भवसामण्णसरणेण सम्मत्तुप्पत्तीए अणब्भुवगमादो। किंतु धम्मबुद्धीए पुन्वभवम्हि कयाणुट्ठाणाणं विहलत्तदंसणस्स पढमसम्मत्तुप्पत्तीए कारणत्तमिच्छिज्जदे, तेण ण पुव्वुत्तदोसो दुक्कदि त्ति । ण च एवंविहा बुद्धी सधणेरइयाणं होदि, तिव्यमिच्छत्तो. दएण ओट्टद्धणेरइयाणं जाणंताणं पि एवंविहउवजोगाभावादो । तम्हा जाइस्सरणं पढमसम्मत्तुप्पत्तीए कारणं । कधं तेसिं धम्मसुणणं संभवदि, तत्थ रिसीणं गमणाभावा ? ण, सम्माइट्ठिदेवाणं कितने ही नारकी जीव जातिस्मरणसे, कितने ही धर्मोपदेश सुनकर, और कितने ही वेदनासे अभिभूत होकर सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं ॥ ८ ॥ शंका-चूंकि सभी नारकी जीव विभंग ज्ञानके द्वारा एक, दो, या तीन आदि भवग्रहण जानते हैं, इसलिये सभीके जातिस्मरण होता है, अतएव सभी नारकी जीव सम्यग्दृष्टि होना चाहिये? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सामान्यरूपसे भवस्मरणके द्वारा सम्यक्त्वकी उत्पत्ति नहीं होती। किन्तु धर्मवुद्धिसे पूर्वभवमें किये गये अनुष्ठानोंकी विफलताके दर्शनसे ही प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारणत्व इष्ट है जिससे पूर्वोक्त दोष प्राप्त नहीं होता। और इस प्रकारकी बुद्धि सब नारकी जीवोंके होती नहीं है, क्योंकि तीव्र मिथ्यात्वके उदयसे वशीभूत नारकी जीवों के पूर्वभवोंका स्मरण होते हुए भी उक्त प्रकारके उपयोगका अभाव है। इस प्रकार जातिस्मरण प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण है। शंका-नारकी जीवोंके धर्मश्रवण किस प्रकार संभव है, क्योंकि वहां तो ऋषियोंके गमनका अभाव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अपने पूर्वभवके सम्बन्धी जीवोंके धर्म उत्पन्न १ घम्मादीखिदितिदये णारइया मिध्छभावसंजुत्ता। जाइभरणेण केई केई दुबारवेदणाभिहदा। केई देवाहितो धम्मणिबद्धा कहा वसोदणं । गिण्हंते सम्मत्तं अणंतभवचूरणणिमित्तं ॥ ति.प. २,३५९-३६०. बाह्य भारकाणां प्राक्चतुर्थ्याः सम्यग्दर्शनस्य साधनं केषाश्विज्जातिस्मरणं केषाञ्चिद्धर्म श्रवणं केषाश्चिद्वेदनाभिभवः । स. सि. १, ७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainel www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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