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१, ९-९, ७.] चूलियाए गदियागदियाए सम्मत्तुप्पादणकारणाणि [४२१
णेरइया मिच्छाइट्ठी कदिहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेंति ?
उप्पज्जमाणं सव्वं हि कर्ज कारणादो चेत्र उप्पज्जदि, कारणेण विणा कज्जुप्पत्तिविरोहादो । एवं णिच्छिदकारणस्स तस्संखाविसयमिदं पुच्छासुत्तं ।
तीहिं कारणेहिं पढमसम्मत्तमुप्पादेति ॥ ७॥
कधमेयं कज्जं तीहि कारणेहि समुप्पज्जदि ? ण, अविरुद्धेहि मोग्गर-लउडिडंगा-थंभ-सिला-भूमि-घडेहिंतो उप्पज्जमाणखप्पराणमुवलंभा । काणि ताणि तिण्णि कारणाणि त्ति उत्ते उत्तरसुत्तं भणदि
द्विचरम समय तक सम्यक्त्वका प्रादुर्भाव बतलाया है वह सप्तम पृथिवीमें लागू नहीं होता, क्योंकि वहां केवल एक मिथ्यात्व गुण स्थानके साथ ही मरण होता है। (देखो आगे सूत्र नं. ५२) अत एव सतम पृथिवीके विषयमें उक्त सूत्रका देशामर्षकरूप द्वितीय व्याख्यान ही स्वीकार करना चाहिये, अन्यथा सप्तम पृथिवीमें भी जीवितके द्विचरम समय तक व उपचारसे अन्तिम समयमें भी सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका प्रसंग आवेगा, जो सूत्रसे विरुद्ध होगा।
नारकी मिथ्यादृष्टि जीव कितने कारणों से प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं ? ॥६॥
उत्पन्न होनेवाला सभी कार्य कारणसे ही उत्पन्न होता है, क्योंकि कारणके विना कार्यकी उत्पत्तिका विरोध है। इस प्रकार निश्चित कारणकी संख्याविषयक यह
पृच्छासूत्र है।
तीन कारणोंसे नारकी मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं ॥७॥
शंका-यह प्रथम सम्यक्त्वोत्पत्तिरूप कार्य तीन कारणोंसे किस प्रकार उत्पन्न होता है ?
समाधान-नही, क्योंकि मुद्गर, लकडी, दंड, स्तम्भ, शिला, भूमि व घट रूप अविरुद्ध करणोंके द्वारा खप्पड़ोंका उत्पन्न होना पाया जाता है।
नरकोंमें सम्यक्त्वोत्पत्तिके वे तीन कारण कौनसे हैं, ऐसा पूछनेपर आचार्य आगेका सूत्र कहते हैं
१ अ-क प्रत्योः ‘कदाहि ' आमतौ ' कंहि' इति पाठः । २ अ-आपल्योः ‘लउदिदंगा' कप्रतौ ‘लउदिदंग ' इति पाठः ।
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