________________
१२.] छक्खडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-९, ५. ___ पज्जत्ताणं सव्वत्थ सम्मत्तुप्पत्तीए पत्ताए तप्पडिसेहट्टमेदं सुत्तमागदं । तं जहापज्जतपढमसमयप्पहुडि जाव तप्पाओग्गंतोमुहुत्तं तात्र णिच्छएण पढमसम्मतं णो उप्पादेंति, अंतोमुहुत्तेण विणा पढमसम्मत्तपाओग्गविसोहीणमुप्पत्तीए अभावादो । आउए अंतोमुहुत्तावसेसे वि णेरड्या पढमसम्मत्तं ण पडिवज्जति, तेण तत्थ पडिसेहो वत्तव्यो ? ण, पज्जवट्टियणयावलंबणेण पडिसमयं पुध पुध सम्मत्तभावे जीविददुचरिमसमओ त्ति पडिवजंतस्स तदुवलंभा । चरिमसमए वि ण पडिसेहो वतव्यो, दंसण मोहोदएग विणा उप्पण्णचरिमसमयसासणभावस्स वि उवयारेण पढमसम्मत्तववदेसादो । अधवा देसामासिगसुत्तमेदं, तेण अवसाणे वि पढमसम्मत्तगहणस्स पडिसेहो सिद्धो होदि ।
एवं जाव सत्तसु पुढवीसु णेरइया ॥५॥
सुगममेदं सुत्तं । किंतु पुघिल्लमुत्तं सत्तम पुढवीए देसामासियं चेत्र, सत्तमपुढविम्हि पढमवक्खाणस्स अणुववत्तीए ।
पूर्वोक्त सूत्रसे पर्याप्तकोंके सर्वकाल सम्यक्त्वोत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है, उसीके प्रतिषेधके लिये यह सूत्र आया है। वह इस प्रकार है- पर्याप्त होने के प्रथम समयसे लगाकर तत्प्रायोग्य अन्तर्मुहूर्त तक निश्चय से जीव प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न नही करते, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तकालके विना प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करने के योग्य विशुद्धिकी उत्पत्तिका अभाव है।।
शंका-आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर भी नारकी जीव प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त नही करते हैं, इसलिये उस काल में भी सम्यक्त्वोत्पत्ति का अभाव कहना चाहिये ?
समाधान-नही, पर्यायार्थिक नयके अवलम्बनसे प्रत्येक समय पृथक् पृथक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होनेपर जीवनके द्विचरिम समय तक भी सम्यक्त्वकी उत्पत्ति पायी जाती है। चरिम समयमें भी सम्यक्त्वोत्पत्तिका प्रतिषेध नहीं कहा जा सकता, क्योंकि दर्शनमोहनीय कर्मके उदयके विना उत्पन्न होनेवाले चरमसमयवर्ती सासादनभावकी भी उपचारसे प्रथमसम्यक्त्व संज्ञा मानी जा सकती है । अथवा, यह सूत्र देशामर्षक है, जिससे जीवनके अवसान कालमें भी प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणका प्रतिषेध सिद्ध हो जाता है।
इस प्रकार एकसे लगाकर सातों पृथिवियोंमें नारकी जीव प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं ॥५॥
यह सूत्र सुगम है। किन्तु पूर्वोक्त सूत्र सप्तम पृथिवीके सम्बन्धमें देशामर्षक ही है, क्योंकि सातवीं पृथिवीमें प्रथम व्याख्यानकी उपपत्ति ठीक नहीं बैठती।
विशेषार्थ-पूर्व सूत्र नं. ४ के प्रथम व्याख्यानमें जो पर्यायार्थिकनयसे जीवितके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org