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रणाणे
१, ९-९, ४.] चूलियाए गदियागदियाए सम्मत्तुप्पादणकारणाणि
उप्पादेंता कम्हि उप्पादेति ? ॥ २॥
आसंकाए कारणाभावा णेदं सुतं वत्तव्यं । कुदो ? ‘णेरइएसु पढमसम्मत्तमुप्पाएंता पज्जत्ता चे उप्पाएंति, णो अपज्जत्तेसु' त्ति पुवं पडिसिद्धत्तादो ? ण एस दोसो । अपज्जत्तणामकम्मोदएण अपज्जत्ता भणंति । णेरड्या पुण पज्जत्ता चेय, तत्थ अपज्जत्तणामकम्मस्सुदयाभावा । ते च णेरइया पज्जत्तणामकम्मोदयं पडुच्च पज्जत्ता वि संता पज्जत्तणिव्यत्तिं पडुच्च पज्जत्ता य होति । एत्थ किं पज्जत्तकाले पढमसम्मत्तमुप्पा-ति, आहो अपज्जत्तकाले उप्पादेति त्ति पुच्छा कदा । तदो णिच्छयसमुप्पायणट्ठमुत्तरसुतं भणदि
पज्जत्तएसु उप्पादेति, णो अपज्जत्तएसु ॥ ३॥ सुगममेदं ।
पज्जत्तएसु उप्पादेंता अंतोमुहुत्तप्पहुडि जाव तप्पाओग्गंतोमुहुत्तं उवरिमुप्पा-ति, णो हेट्ठा ॥ ४ ॥
प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले नारकी जीव किस अवस्थामें उसे उत्पन्न करते हैं ? ॥ २॥
शंका--आशंकाका कोई कारण न होनेसे यह सूत्र नहीं कहना चाहिये, क्योंकि "नारकियों में प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीव पर्याप्त अवस्थामें ही उत्पन्न करते हैं, अपर्याप्तों में नहीं" इस प्रकार अपर्याप्त अवस्थामें प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका पहले ही प्रतिषेध किया जा चुका है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है । अपर्याप्त नाम कर्मके उदयसे जीव अपर्याप्त कहलाते हैं । किन्तु नारकी तो पर्याप्त ही होते हैं, क्योंकि नरकोंमें अपर्याप्त नामकर्मके उदयका अभाव है। और वे नारकी पर्याप्त नामकर्मके उदयकी अपेक्षा पर्याप्त होते हुए भी निर्वृत्त्यपर्याप्तकी अपेक्षा अपर्याप्त भी होते हैं । अतएव यहां सूत्रमें यह प्रश्न किया गया है कि नारकी पर्याप्त कालमें प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं, अथवा अपर्याप्त कालमें उत्पन्न करते हैं । अतः इस शंकाके उत्पन्न होनेपर निश्चय उत्पन्न करानेके लिये आचार्य आगेका सूत्र कहते हैं -
नारकी जीव पर्याप्तकोंमें ही प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं, अपर्याप्तकोंमें नहीं ॥३॥
यह सूत्र सुगम है।
पर्याप्तकोंमें प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाले अन्तर्मुहूर्तसे लगाकर अपने योग्य अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं, उससे नीचे नहीं ।। ४ ॥
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