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________________ ५१८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-९, १. सिद्धिं गच्छदि। एवं दोहि सुत्तहि सूइदत्थस्स परूवणाए कदाए संपुण्णं चारित्तप्पडिवज्जणविहाणं परूविदं होदि। एवं अहमी महल्लचूलिया समत्ता णवमी चूलिया संपहि वासद्दसूइयं णवमं चूलियं वत्तइस्सामो । तत्थ ताव पुवपरूविदस्स अत्थस्स संभालणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि णेरड्या मिच्छाइट्ठी पढमसम्मत्तमुप्पा-ति ॥ १॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो, चदुसु वि गदीसु पढमसम्मत्तमुप्पादेति त्ति पुव्वं परूविदत्तादो। ..........................." आत्मा एक समयमें सिद्धिको प्राप्त करता है। इस प्रकार दो सूत्रोंसे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करनेपर सम्पूर्ण चरित्रकी प्राप्तिका विधान प्ररूपित होता है। इस प्रकार आठवीं महती चूलिका समाप्त हुई। अब हम (प्रथम चूलिकान्तर्गत प्रथम सूत्रमें) 'वा' शब्दके द्वारा सूचित (देखो पृ.१ और ४) गति-आगति नामक नौमी चूलिकाको कहेंगे। इस प्रकरणमें पूर्वप्ररूपित अर्थका स्मरण कराने के लिये आचार्य आगेका सूत्र कहते हैं नारकी मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं ॥१॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि पूर्वमें यह प्ररूपित किया जा चुका है कि चारों ही गतियों में जीव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं। ......................................... १ स. सि. १०. २. बाहत्तरिपयडीओ दुचरिमगे तेरसं च चरिमम्हि । झाणजलणेण कवलिय सिद्धो सो होदि से काले ॥ लब्धि. ६४८. देहादीफस्संता थिरसुहसरसुरविहायद्ग दुभगं । णिमिणाजसऽणादेज्जं पत्तेयापुण्ण अगुरुचऊ ॥ अणुदयतदियं णीचमजोगिदुचरिमम्मि सत्तवोच्छिण्णा || गो. क. ३४०-३४१. तस्मिश्च द्विचरमसमये देवगतिदेवानुपूर्वी... ...द्विसप्ततिसंख्यानि स्वरूपसत्तामधिकृत्य क्षयमुपगच्छन्ति । xxx चरमसमये च सातासातान्यतरवेदनीयमनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्वीमनुष्यायुःपंचेन्द्रियजातित्रससुभगादेययशःकीर्तिपर्याप्तबादरतीर्थकरोच्चैर्गोत्ररूपाणां त्रयोदशप्रकृतीनां सत्ताव्यवच्छेदः। अन्ये पुनराहुः- मनुष्यानुपूर्व्या द्विचरमसमये व्यवच्छेदः, उदयाभावात् । xxx इति तन्मतेन द्विचरमसमये त्रिसप्ततिप्रकृतीनां सत्ताव्यवच्छेदः, चरमसमये द्वादशानामिति । पंचसंग्रह १, पृ. ३२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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