________________
१, ९-८, १६.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए खीणकसायपरूवणं
[ ४११ मुहुत्ता । तिहं घादिकम्माणं ट्ठिदिबंधो अंतोमुहुतं'। तेसिं चेव तिण्हं द्विदिसंतकम्म पि अंतोमुहुत्तं । णामा-गोद-वेदणीयाणं डिदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि । मोहणीयस्स ट्टिदिसंतकम्मं तत्थ णस्सदि ।
तदो से काले पढमसमयखीणकसाओ जादो। ताधे चेव द्विदि-अणुभागाणमबंधगो । एवं जाव चरिमसमयाहियावलियछदुमत्थो ताव तिण्डं घादिकम्माणमुदीरगो । तदो दुचरिमसमए णिद्दा-पयलाणमुदयसंतयोच्छेदों । तदो णाणावरण-दसणावरण-अंत
बारह मुहूर्त, और तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहर्तमात्र होता है। इन्हीं तीन घातिया कौंका स्थितिसत्व भी अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है। नाम, गोत्र व वेदनीय, इनका स्थितिसत्व असंख्यात वर्षप्रमाण होता है । मोहनीयका स्थितिसत्व वहां नष्ट हो जाता है।
चारित्रमोहनीयके क्षयके अनन्तर समयमें प्रथमसमयवर्ती क्षीणकषाय होता है। उसी समयमें ही सब कर्मोंकी स्थिति और अनुभागका अवन्धक होता है।
विशेपार्थ-कर्मोकी स्थिति और अनुभागके बन्धका कारण कपाय है । अत एव कषायके क्षीण हो जाने पर कारणके अभावमें कार्याभावके न्यायानुसार, उक्त दोनों बन्धोंका भी अभाव हो जाता है। किन्तु प्रकृतिबन्ध केवल योगके निमित्तसे होता है, और क्षीणकपाय हो जानेपर भी योगकी प्रवृत्ति रहती ही है । अत एव यहां प्रकृतिबन्धका निषेध नहीं किया गया। जयधवलानुसार प्रदेशबन्धका भी व्युच्छेद स्थिति व अनुभागके बन्धव्युच्छेदके साथ ही हो जाता है।
इस प्रकार एक समय अधिक आवलिमात्र छद्मस्थकालके शेष रहने तक तीन घातिया कर्मोंका उदीरक होता है। इसके पश्चात् द्विचरम समयमें निद्रा और प्रचलाके उदय व सत्वकी व्युच्छित्ति हो जाती है। तदनन्तर एक समयमें ज्ञानावरण, दर्शना
१णामदगे वेयणीये अडवारसमुहत्तयं तिवादीगं। अंतोमुत्तमेत्तं ठिदिबंधो चरिमसुहमम्हि ।। लधि.५९८. २ तिण्हं घादीणं ठिदिसंतो अंतोमुहुत्तमत्तं तु । तिण्हमधादीणं ठिदिसंतमसंखेज्जवस्साणि ॥ लग्धि. ५९९.
३ ताधे चेव द्विदि-अणुभाग-पदेसस्स अबंधगो। तदवस्थायामेव सर्वकर्मणां स्थित्यनुभवप्रदेशानामबन्धक .इत्युक्तं भवति । कषायो हि स्थित्यादिबन्ध कारणं, तस्य तदन्वय व्यतिरे कानुविधायित्त्वात्ततः कषायपरिणामसंश्लेषापगमानास्य स्थित्यादिबन्धसम्भव इति सुनिरूपितमेतत् । पयडिबंधो पुण जोगमेत्तणिबंधणो खीणकसाये वि संभवदि त्ति ण तस्स पडिसेहो एत्थ कदो | जयध. अ. प. १२३०. ठिदिअणुभागाणं पुण बंधो सुहुमो त्ति होदि णियमेण । बंधपदेसाणं पुण संकमणं सुहुमरागो ति ॥ गो. क. ४२९. तत्र योगनिमित्ती प्रकात प्रदेशी, कषायनिमित्तौ स्थित्यनुभवौ । तत्प्रकर्षाप्रकर्षभेदात्तद्वन्धविचित्रभावः । तथा चोक्तं- जोगा पयडि पदेसा ठिदि अणुभागा कसायदो कुणदि । अपरिणदुच्छिपणेसु य बंध-विदि कारणं णस्थि ॥ स. सि. ८, ३., गो. क. २५७. से काले सो खीणकसाओ ठिदिरसगबंधपरिहीणो ।। लब्धि. ६००.
४ चरिमे खंडे पडिदे कदकरणिजो ति भण्णदे एसो । तस्स दुचरिमे णिद्दा पयला सनुदयवोच्छिण्णा ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org