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________________ ४०८ ] छक्खडागमे जीवट्ठाणं [१,९-८, १६. हंती कोधस्स पढमद्विदी, कोधस्स चेव खवणद्धा, माणस्स खवणद्धा च, मायाए उवट्ठिदस्स एम्महंती मायाए पढमद्विदी। कोधेण उवह्रिदो जम्हि अस्सकण्णकरणं करेदि, मायाए उवढिदो तम्हि कोधं खवेदि । कोषेण उवढिदो जम्हि किट्टीओ करेदि, मायाए उवविदो तम्हि माणं खवेदि । कोषेण उवढिदो जम्हि कोधं खवेदि, मायाए उवहिदो तम्हि अस्सकण्णकरणं करेदि । कोषेण उवविदो जम्हि माणं खवेदि, मायाए उवविदो तम्हि किट्टीओ करेदि । कोधेण उवविदो जम्हि मायं खवेदि, तम्हि चेत्र मायाए उवद्विदो मायं खवेदि । एत्तो पाए लोभं खवेमाणस्स णत्थि णाणत्तं । पुरिसवेदयस्स लोभेण उवविदस्स णाणत्तं वत्तइस्सामो- जाव अंतरं ण करेदि ताव णत्थि णाणतं । अंतरं करेमाणो लोभस्स पढमडिदिं हवेदि। सा केम्महंती ? जदेही कोधेण उवविदस्स कोधस्स पढमद्विदी, कोध-माण-मायाणं खवणद्धा च, तदेही लोभेण उवट्टिदस्स लोभस्स पढमट्टिदी । कोण उवट्टिदो जम्हि अस्सकण्णकरणं करेदि, लोभेण क्रोधसे उपस्थित हुएके जितनी बड़ी क्रोधकी प्रथमस्थिति, क्रोधका ही क्षपणाकाल और मानका भी क्षपणाकाल है, उतनी बड़ी मायासे उपस्थित हुएके मायाकी प्रथमस्थिति है। क्रोधसे उपस्थित हुआ जिस कालमें अश्वकर्णकरण करता है, मायासे उपस्थित हुआ उस काल में क्रोधका क्षय करता है। क्रोधसे उपस्थित हुआ जिस कालमें कृष्टियोंको करता है, मायासे उपस्थित हुआ उस कालमें मानका क्षय करता है। क्रोधसे उपस्थित हुआ जिस कालमें क्रोधका क्षय करता है, मायासे उपस्थित हुआ उसमें अश्वकर्णकरणको करता है। क्रोधसे उपस्थित जिस कालमें मानका क्षय करता है, मायासे उपस्थित उस कालमें कृष्टियोंको करता है। क्रोधसे उपस्थित जिस कालमें मायाका क्षय करता है, उसी कालमें ही मायासे उपस्थित मायाका क्षय करता है। यहांसे लेकर लोभका क्षय करनेवालेके कोई विशेषता नहीं है। ___ लोभसे उपस्थित हुए पुरुषवेदककी विशेषताको कहते हैं । जब तक अन्तर नहीं करता है, तब तक कोई विशेषता नहीं है । अन्तरको करनेवाला लोभकी प्रथमस्थितिको स्थापित करता है। शंका-वह लोभकी प्रथमस्थिति कितने प्रमाणरूप है ? समाधान-जितनी क्रोधके उदयसे उपस्थित क्षपकके क्रोधकी प्रथमस्थिति, तथा क्रोध, मान एवं मायाका क्षपणकाल है, उतनीमात्र लोभसे उपस्थित क्षपकके लोभकी प्रथमस्थिति है। क्रोधसे उपस्थित हुआ क्षपक जिस कालमें अश्वकर्णकरणको . १ प्रतिषु तज्जही' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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