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________________ १, ९-८, १६.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए खवगणाणत्तपरूवणं [४.५ मोहणीयस्स विदिसंतकम्मं सेसं । एसा परूवणा पुरिसवेदयस्स कोधेण उवविदस्स । पुरिसवेदयस्स चेव माणेण उवट्ठिदस्स णाणत्तं वत्तइस्सामो। तं जहा- अंतरे अकदे णत्थि णाणत्तं । अंतरकदे अस्थि णाणत्तं । अंतरे कदे कोधस्स पढमहिदी णत्थि, माणस्स अस्थि । सा केम्महंती ? जद्देही कोधेण उवढिदस्स कोधस्स पढमकिट्टी, कोधस्स चेव खवणद्धा च, एम्महंती माणेण उवविदस्स माणस्स पढमट्ठिदी । जम्हि कोषेण उवविदो अस्सकण्णकरणं करेदि, माणेण उवढिदो तम्हि काले कोधं खवेदि । कोषेण उवट्ठिदस्स जा किट्ठीकरणद्धा, माणेण उवढिदस्स तम्हि काले अस्सकण्णकरणद्धा । कोधेण उवविदस्स जा कोधस्स खवणद्धा, माणेण उवट्टिदस्स तम्हि काले किट्टीकरणद्धा। कोण उवविदस्स माणस्स जा खवणद्धा, माणेण उवविदस्स तम्हि चेव काले माणस्स खवणद्धा । एत्तो पाए जहा कोषेण उवट्टिदस्स विही तहा माणेण वि उवडिदस्स पुरिसवेदयस्स । मायाए उवट्ठिदस्स णाणत्तं वत्तइस्सामो। तं जहा- कोधेण उवविदस्स जम्म शेष है उतना मोहनीयका स्थितिसत्व शेष है। यह प्ररूपणा क्रोधसे उपस्थित पुरुषवेदीकी है। मानसे उपस्थित पुरुषवेदीकी विशेषताको कहते हैं। वह इस प्रकार है - अन्तरके न करनेपर अर्थात् अन्तरकरणसे पूर्वअवस्थामें वर्तमान क्षपकोंके कोई विशेषता नहीं है। किन्तु अन्तर कर चुकनेपर विशेषता है। अन्तर कर चुकनेपर क्रोधकी प्रथमस्थिति नहीं है। किन्तु मानकी प्रथमस्थिति है। शंका-वह मानकी प्रथमस्थिति कितनी बड़ी है ? समाधान-क्रोधसे उपस्थित हुए जीवके जितनी क्रोधकी प्रथमस्थिति और क्रोधका ही क्षपणाकाल है, उतनी बड़ी मानसे उपस्थित हुए जीवके मानकी प्रथमस्थिति है। जिस कालमें क्रोधसे उपस्थित हुआ अश्वकर्णकरणको करता है उस कालमें मानसे उपस्थित हुआ क्रोधका क्षय करता है। क्रोधसे उपस्थित हुए जीवका जो कृष्टिकरणकाल है, मानसे उपस्थित हुएका उस कालमें अश्वकर्णकरणकाल है । क्रोधसे उपस्थित हुएके जो क्रोधका क्षपणाकाल है, मानसे उपस्थित हुएका उस कालमें कृष्टिकरणकाल है। क्रोधसे उपस्थित हुएके मानका जो क्षपणाकाल है, मानसे उपस्थित हुएके उसी कालमें मानका क्षपणाकाल है। यहांसे लेकर जैसी क्रोधसे उपस्थित हुए पुरुषवेदी जीवकी विधि है, वैसी ही मानसे भी उपस्थित हुए पुरुषवेदीकी विधि है। मायासे उपस्थित हुए पुरुषवेदीकी विशेषताको कहते हैं। वह इस प्रकार है १ उक्विण्णे अवसाणे खंडे मोहस्स णत्थि ठिदिघादो। ठिदिसत्तं मोहस्स य सुहुमद्धासेसपरिमाणं ॥ लन्धि. ५९७. २ एस्थ णाणत्तमिदि दुत्ते भेदो विसेसो पुधभावो ति एयहो। जयध. अ. प. १२२६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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