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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, ११. किटिं वेदयमाणस्स जा पढमहिदी तिस्से पढमट्टिदीए आवलियाए समयाहियाए सेसाए ताधे जा लोभस्स तदियकिट्टी सा सव्वा णिरवयवा सुहुमसांपराइयकिट्टीसु संकंता । (जा) विदियकिट्टी तिस्से दोआवलियसमऊणे बंधे मोत्तूण उदयावलियपविटुं च सेसं सव्वं सुहुमसांपराइयकिट्टीसु संकंतं । ताधे चरिमसमयबादरसांपराइओ मोहणीयस्स चरिमसमयबंधगो जादो।
से काले पढमसमयसुहुमसांपराइओ जादो । ताधे सुहुमसांपराइयकिट्टीणमसंखेज्जा भागा उदिण्णा । हेट्ठा अणुदिण्णाओ थोवाओ, उवरि अणुदिण्णाओ विसेसाहियाओ । मज्झे उदिण्णाओ सुहुमसांपराइयकिट्टीओ असंखेज्जगुणाओ। सुहुमसांपराइयस्स संखेज्जेसु द्विदिखंडयसहस्सेसु गदेसु जमपच्छिमट्ठिदिखंडयं मोहणीयस्स तम्हि द्विदिखंडए उक्कीरमाणे जो मोहणीयस्स गुणसेडीणिक्खेवो तस्स गुणसेडीणिक्खेवस्स अग्गग्गादो संखेज्जदिभागो आगाइदों। तम्हि द्विदिखंडए उक्किण्णे तदो पहुडि मोहणीयस्स णस्थि द्विदिघादो । सुहुमसांपराइयद्वाए जत्तियं सेसं तत्तियं
द्वितीय कृष्टिको वेदन करनेवालेके जो प्रथमस्थिति है उस प्रथमस्थितिकी एक समय अधिक आवलिके शेष रहनेपर उस समयमें जो लोभकी तृतीय कृष्टि है वह सब अवयव कृष्टियोंसे रहित होती हुई सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों में संक्रमणको प्राप्त हो चुकती है। जो द्वितीय कृष्टि है उसके एक समय कम दो आवलिमात्र नवक बंधको छोड़कर तथा उदयावालप्रविष्ट द्रव्यको भी छाड़कर शेष सब प्रदेशाग्र सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टियोंमें संक्रमणको प्राप्त हो जाता है। उस समय जीव अन्तिमसमयवर्ती बादरसाम्परायिक व मोहनीयका अन्तिमसमयवर्ती बन्धक होता है ।
अनन्तर कालमें जीव प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक हो जाता है। उस समय में सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके असंख्यात भाग उदीर्ण होते हैं । नीचे जो कृष्टियां अनुदीर्ण हैं वे स्तोक हैं। जो ऊपर अनुदीर्ण हैं वे उनसे विशेष अधिक हैं। मध्यमें जो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियां उदीर्ण हैं वे असंख्यातगुणी हैं । सूक्ष्मसाम्परायिकके संख्यात स्थितिकांडकोंके चले जानेपर जो अन्तिम स्थितिकांडक है, उस स्थितिकांडकके उत्कीर्ण करते समय जो मोहनीयका गुणश्रेणिनिक्षेप है उस गुणश्रेणिनिक्षेपके उत्तरोत्तर अग्राग्रसे संख्यातवें भागको ग्रहण करता है। उस स्थितिकांडकके उत्कीर्ण हो जानेपर यहांसे लेकर मोहनीयका स्थितिघात नहीं होता। सूक्ष्मसाम्परायिककालमें जितना काल
१ सुहुमाणं किट्टीणं हेट्ठा अणुदिण्णगा हु थोवाओ। उवरिं तु विसेसहिया मझे उदया असंखरणा ।। सन्धि. ५९४.
२ सहमे संखसहस्से खंडे तीचे वसाणखंडेण । आगायदि गुणसेटी आगादो संखभागे च ॥लब्धि. ५९५.
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