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________________ ४०२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, १६. हियं । कोहस्स पढमसंगहकिट्टीदो कोधस्स चेव विदियसंगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं संखेजगुणं । एसो पदेससंकमो अदिक्कंतो वि उक्खेदिदो सुहुमसांपराइयकिट्टीणं कीरमाणीणं आसओ त्ति कादण' । सुहमसांपराइयकिट्टीसु पढमसमए दिज्जदि पदेसग्गं थोवं । विदियसमए असंखेज्जगुणं । एवं जाव चरिमसमयादो त्ति ताव असंखेजगुणं । एदेण कमेण लोभस्स विदियकिहिं वेदयमाणस्स जा पढमाद्विदी तिस्से पढमद्विदीए समयाहियावलिया सेसा ति। तम्हि समए चरिमसमयबादरसांपराइओ। तम्हि चेव समए लोभस्स चरिमवादरसांपराइयकिट्टी संछुब्भमाणा संछुद्धा । लोभस्स विदियाकिट्टीए दो आवलियबंधे समऊणे मोत्तूण उदयावलियपविटुं च मोत्तूण सेसाओ विदियकिट्टीए अंतरकिट्टीओ संछुब्भमाणीओ संछुद्धाओ। तम्हि चेव लोभसंजलणस्स द्विदिबंधो अंतोमुहुत्तं, तिण्हं घादिकम्माणं अहो ---........................... प्रथम संग्रहकृष्टिसे क्रोधकी ही द्वितीय संग्रहकृष्टिमें संख्यातगुणा प्रदेशाग्र संक्रमण करता है। यह बादरकृष्टिविषयक प्रदेशसंक्रमण यद्यपि अतिक्रान्त हो चुका है तो भी सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके करनेमें प्राप्त प्रदेशसंक्रमणका कारणभूत मानकर पुनः कहा गया है। सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें प्रथम समयमें प्रदेशाग्र स्तोक दिया जाता है। द्वितीय समयमें असंख्यातगुणा दिया जाता है । इस प्रकार बादरसाम्परायिकके अन्तिम समय सक असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र दिया जाता है । इस क्रमसे लोभकी द्वितीय कृष्टिको वेदन करनेवालेके जो प्रथमस्थिति है उस प्रथमस्थितिकी एक समय अधिक आवलिमात्र शेष रहती है। उस समयमें अन्तिमसमयवर्ती बादरसाम्परायिक होता है। उसी अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें संक्रम्यमाण लोभकी अन्तिम बादरसाम्परायिक कृष्टि पूर्णतया सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें संक्रमणको प्राप्त हो जाती है। लोभकी द्वितीय कृष्टिके एक समय कम दो आवलिमात्र नवक समयप्रबद्धोंको तथा उदयावलिप्रविष्ट द्रव्यको छोड़कर शेष संक्रम्यमाण द्वितीय कृष्टिकी अन्तरकृष्टियां संक्रमणको प्राप्त हो जाती हैं। उसी समयमें संज्वलनलोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त और तीन घातिया १ एदस्सत्थो वुच्चदे- एसो पदेससंकमो बादरकिट्टीविसयो अइक्कतो वि उक्खेदिदो, अइक्तावसरो वि संतो पुणरक्खि विद्ण भणिदो। किमहमेवं भणिज्जदित्ति चे, सुहुमसांपराइयकिट्टीसु कीरमाणीसु आसवो ति कादूण सहुमसांपराइयकिट्टीसु कीरमाणीसु जो पदेससंकमो पदिदो तस्स कारणभूदो त्ति कादण अइक्कंतावसरो वि होतो एसो पदेससंकमो पुणरुच्चाइदूण भणिदो त्ति वृत्तं होई। जयध. अ. प. १२०२. २ प्रतिषु 'समए नादरसांपराइओ किट्टी' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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