________________
चूलियाए सम्मत्तप्पत्तीए किट्टीवेदणं
१, ९-८, १६. ]
सुमसांपराइयकिट्टी' |
कोस्स पढमसंगहकिट्टीए अंतर किडीओ थोवाओ । कोधे संछुद्धे. माणस्स पढमसंगह किट्टीए अंतर किट्टीओ विसेसाहियाओ । माणे संछुद्धे मायाए पढमसंगह किट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । मायाए संछुद्धे लोभपढमसंगह किड्डीए अंतरकिडीओ विसेसाहियाओ | सुहुमसांपराइय किट्टीओ वि जाओ पढमसमए कदाओ ताओ विसेसा
[ ३९७
कृष्टि भी है।
विशेषार्थ - जिस प्रकार क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि शेष संग्रहकृष्टियोंकी अपेक्षा अपने आयाम से संख्यातगुणी थी, उसी प्रकार यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि भी क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिको छोड़कर शेष समस्त संग्रहकृष्टियों के कृष्टिकरणकालमें उपलब्ध आयाम से संख्यातगुणे आयामवाली है, क्योंकि, सम्पूर्ण मोहनीय कर्मका द्रव्य इसके रूप परिणमन करनेवाला है । अथवा, जिस प्रकार क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टि अपूर्व स्पर्द्धकोंके नीचे अनन्तगुणी दीन की गई थी, उसी प्रकार यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृषि लोभकी तृतीय बादरसाम्परायिक कृटिके नीचे अनन्तगुणी हीन की जाती है । अथवा, जिस प्रकार क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टि जघन्य कृष्टिसे लेकर उत्कृष्ट कृष्टि पर्यन्त अनन्तगुणी होती गई थी, उसी प्रकार ही यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि भी अपनी जघन्य कृष्टि लेकर उत्कृष्ट कृष्टि तक अनन्तगुणी होती जाती है ।
क्रोध की प्रथम संग्रह कृष्टिकी अन्तरकृष्टियां स्तोक ( ) हैं। क्रोध के संक्रमणको प्राप्त होनेपर मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेष अधिक ( ) हैं । मानके संक्रमणको प्राप्त होनेपर मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेष अधिक (३) हैं । मायाके संक्रमणको प्राप्त होनेपर लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेष अधिक ( ३ ) हैं । सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियां भी जो प्रथम समय में की गई हैं वे विशेष अधिक
Jain Education International
१ जारिसी कोहस्स पढमसंगहकिट्टी तारिसी एसा सहुमसांपराइयाकट्टी, एवं भणतस्साहिप्पाओ- जहा कोहस्स पढमसंगहकिट्टी सगायामेण सेससंगह किट्टीणमायामं पेक्खियूण दव्त्रमाहप्पेण संखेज्जगुणा जादा, एवमेसा वि सहुमसांपराइयाकट्टी कोहपदमसंगहाकहिं मोतूण सेसासेससंगह किट्टीणं किडी करणद्धार समुत्रलद्धायामादो संखेज्जगुणायामा दट्ठव्वा, सयलस्सेव मोहणीयदव्वस्साहारमात्रेण एदिस्से परिणमिस्समागत्तादो ति । अथवा, जारिसी कोहस्स पढमसंगहकिट्टी, एवं भणिदे जारिसलक्खणा कोहपटमसंगहकिट्टी अपुच्चयाणं हेट्ठा अनंतगुणहीणा होण कदा, तारिस लक्खणा चेत्र एसा सुहुमसांपराइयकिट्टी लोभस्स तदियबादरसां पराइयकिट्टीदो हेड्डा अनंतगुणहीणा होण करदित्ति भणिदं होदि । अहह्वा, जहा कोहपदमसंगहकिट्टी जहण्णाकट्टिम्पहुडि जात्र उक्कस्सकिट्टि ति ताव अनंतगुणा होण गदा तहा चेत्र एसा मुहुमसांपराइय किडी व अप्पणो जहणकिद्विपहुडि जान सगुस्सकिहि ि ताव अनंतगुणा होण गच्छदित्ति भणिदं होदि || जयध. अ. प. ११९७ लोहस्स तदियसंगह किट्टीए दो अवाणं | मुहुमाणं किट्टीणं कोहस्स य पटमकिट्टिणिभा ॥ लब्धि. ५६६.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org