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________________ १, ९-८, १६.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए किट्टीवेदणं [ ३९५ से काले मायाए विदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकट्टिदूण पढमट्ठिदि करेदि । सो वि मायाए विदियकिट्टिवेदगो तेणेव विहिणा संपत्तो । मायाए विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमहिदी तिस्से पढमट्ठिदीए आवलिया समयाहिया सेसा त्ति । ताधे द्विदिबंधो वीसं दिवसा देसूणा; द्विदिसंतकम्मं सोलस मासा देसूणा' । से काले मायाए तदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकट्टिदूण पढमट्ठिदिं करेदि तेणेव विहिणा संपत्तो । मायाए तदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमद्विदी तिस्से पढमद्विदीए समयाहियावलिया सेसा ति। ताधे मायाए चरिमसमयवेदगो । ताधे दोण्हं संजलणाणं द्विदिबंधो अद्धमासो पडिवुण्णो; द्विदिसंतकम्ममेक्कं वस्सं पडिवुण्णं । तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिबंधो मासपुधत्तं । तिण्डं घादिकम्माणं विदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । इदरेसिं कम्माणं हिदिबंधो संखेज्जाणि वस्साणि; ट्ठिदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि'। अनन्तर समयमें मायाकी द्वितीय कृष्टिसे प्रदेशाग्रका अपकर्षण कर प्रथमस्थितिको करता है, वह मायाकी द्वितीय कृष्टिका वेदक भी उसी विधिसे अपने कृष्टिवेदककालके अन्तिम समयको प्राप्त होता है । मायाकी द्वितीय कृष्टिका वेदन करनेवालेके जो प्रथमस्थिति है उस प्रथमस्थितिमें एक समय अधिक आवलिमात्र शेष रहती है। उस समयमें संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध कुछ कम बीस दिन और स्थितिसत्व कुछ कम सोलह मासप्रमाण होता है। __अनन्तर समयमें मायाकी तृतीय कृष्टिसे प्रदेशाग्रका अपर्कषण कर प्रथमस्थितिको करता है । और उसी विधिसे अपने कृष्टिवेदककालके अन्तिम समयको प्राप्त होता है । मायाकी तृतीय कृष्टिका वेदन करनेवाले जीवके जो प्रथमस्थिति है उस प्रथमस्थितिमें एक समय अधिक आवलिमात्र शेष रहती है। उस समयमें मायाका अन्तिम समय वेदक होता है। तब शेष दो संज्वलनोंका स्थितिबन्ध परिपूर्ण अर्ध मास और स्थितिसत्व परिपूर्ण एक वर्षप्रमाण होता है। तीन घातिया काँका स्थितिबन्ध मासपृथक्त्वप्रमाण होता है। तीन घातिया कर्मोंका स्थितिसत्व संख्यात वर्षसहस्रमात्र होता है। इतर कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात वर्ष और स्थितिसत्व असंख्यात वर्षमात्र होता है। १ विदियगमायाचरिमे वीसं सोलं च दिवसमासाणि। अंतोमुहुत्तहीणा बंधो सत्तो दुसंजलणगाणं ।। लब्धि. ५६०. २ तदियगमायाचरिमे पण्णरवारसय दिवसमासाणि। दोण्हं संजलणाणं ठिदिबंधी तह य सत्तो य ।। लब्धि. ५६१. ६ मसिंपुधत्तं वासा संखसहस्साणि बंध सत्तो य । घादितियाणिदराण संखमसंखेज्जवस्साणि ॥लब्धि.५६२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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