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________________ ३८४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, १६. वेदिज्जति ताओ थोवाओ। जाओ किट्टीओ वेदिज्जंति, ण बझंति ताओ विसेसाहियाओ। तिस्से चेव पढमाए संगहकिट्टीए उवरिं जाओ किट्टीओ ण बझंति, ण वेदिज्जति ताओ विसेसाहियाओ । उवरिं जाओ वेदिज्जति, ण बझंति ताओ विसेसाहियाओ । मज्झे जाओ किट्टीओ बझंति वेदिज्जति च, ताओ असंखेज्जगुणाओ। किट्टीणं पढमसमयवेदगप्पहुडि मोहणीयस्स अणुभागाणमणुसमयओवट्टणा । पढमसमयकिट्टीवेदगस्स कोधकिट्टी उदए उक्कस्सिया बहुगी । बंधे उक्कस्सिया किट्टी अगंतगुणहीणा । विदियसमए उदए उक्कस्सिया किट्टी अणंतगुणहीणा। बंधे उक्कस्सिया किट्टी अणंतगुणहीणा । एवं सब्धिस्से किट्टीवेदगद्धाए । पढमसमए बंधेण जहणिया किटी तिव्वाणुभागा, उदए जहणिया किट्टी अणंतगुणहीणा । विदियसमए बंधे जहणिया किट्टी अणतगुणहीणा, उदए जहणिया किट्टी अणंतगुणहीणा । एवं सब्धिस्से किट्टीवेदगद्धाए' जो कृष्टियां न बंधती हैं और न उदयको प्राप्त हैं वे स्तोक हैं । जो कृष्टियां उदयको प्राप्त हैं, किन्तु बंधती नहीं हैं वे विशेष अधिक हैं। उसी प्रथम संग्रह कृष्टिके ऊपर जो कृष्टियां न बंधती हैं और न उदयको प्राप्त हैं वे विशेष अधिक हैं । ऊपर जो उदयको प्राप्त हैं, परन्तु बंधती नहीं हैं वे विशेष अधिक है। मध्यमें जो कृष्टियां बंधती हैं और उदयको भी प्राप्त हैं वे असंख्यातगुणी हैं। कृष्टियोंके प्रथमसमयवर्ती वेदक होनेके कालसे लेकर मोहनीयके अनुभागोंका समय समयमें अपवर्तन होता है। प्रथम समय कृष्टिवेदकके उदयमें प्रवेश करनेवाली अनन्त मध्यम क्रोधकृष्टियोंमें उत्कृष्ट कृष्टि तीव्र अनुभागसे युक्त है। परन्तु बध्यमान अनन्त कृष्टियोंमें सर्वोत्कृष्ट कृष्टि अनन्तगुणी हीन है। द्वितीय समयमें उदयमें उत्कृष्ट कृष्टि अनन्तगुणी हीन है। बन्धमें उत्कृष्ट कृष्टि अनन्तगुणी हीन है। जिस प्रकार प्रथम और द्वितीय समयमें बन्ध व उद्यमें उत्कृष्ट कृष्टियोंके अल्पबहुत्वका क्रम कहा गया है उसी प्रकार सब कृष्टिवेदककालमें कहना चाहिये । प्रथम समयमें बन्धसे जघन्य कृष्टि तीव्र अनुभागवाली और उदयमें जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी हीन है। द्वितीय समयमें बन्धमें जघन्य कृष्टि अनन्त गुणी हीन है व उदयमें जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी हीन है । इसी प्रकार सब कृष्टिवेदककालके तृतीयादि समयों में भी बन्ध व १ कोहस्स पढमसंगहकिद्विस्स य हेट्ठिमणुभयहाणा। तत्तो उदयहाणा उवार पुण अणुभयट्ठाणा ॥ उरिं उदयट्ठाणा चत्तारि पदाणि होति अहियकमा । मज्झे उभयहाणा होति असंखेजसंगुणिया ॥ ५१६-५१७. २ प्रतिषु किट्टीए अद्धाए' इति पाठः । पडिसमयं अहिंगदिणा उदये बंधे च होदि उकस्सं । बंधुदये च जहणं अणंतगुणहीणया किट्टी ॥ लब्धि. ५२१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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