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________________ १, ९-८, १६. ] चूलियाए सम्मत्तप्पत्तीए किट्टीवेदणं समए समए णिव्वग्गणाओ' जहण्णियाओ वि । एसा को किट्टीए परूवणा । कट्टी पढमसमयवेदगस्स माणस्स पढमाए संगहकिट्टीणं किट्टीणमसंखेज्जा भागा बज्झति, सेसाओ संगहकिट्टीओ ण बज्झति । एवं माया - लोभाणं पि वत्तव्यं । किट्टणं पढमसमयवेदगो वारसहं पि संगहकिट्टीणमग्गकिट्टिमादि कादृणमेक्के किस्से संगह किट्टी असंखेज्जदिभागमणुसमयं विणासेदि । कोधस्स पढमकिट्टि मोत्तूण सेसाणमेक्कारसहं संगह किट्टीणमण्णाओ अपुव्वाओ किट्टीओ णिव्यत्तेदि । ताओ अपुव्वाओ किट्टीओ कदमादो पदेसग्गादो णिव्वत्तेदि १ बज्झमाणियादो संकामिज्जमाणियादो च पदेसग्गादो णिव्यत्तेदि । बज्झमाणियादो थोवाओ णिव्वतेदि । संकामिज्जमाणियादो असंखेज्जगुणाओ । जाओ बज्झमाणियादो णिव्वत्तिज्जति ताओ चदुसु पढमकिट्टी' । ताओ कदमम्हि ओगासे ! एकेकिस्से संगहकिट्टीए किड्डी अंतरेसु । उदयसम्बन्धी जघन्य कृष्टियोंके अल्पबहुत्वक्रमको कहना चाहिये । यह क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी प्ररूपणा है । [ ३८५ कृष्टियोंके प्रथम समय वेदकके मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें कृटियोंके असंख्यात बहुभाग बंधते हैं। शेष संग्रहकृष्टियां नहीं बंधती हैं । इसी प्रकार माया और लोभके भी कहना चाहिये । कृष्टियोंका प्रथम समय वेदक बारहों संग्रहकृष्टियोंके उपरिम भागमें उत्कृष्ट कृष्टिको आदि करके एक एक संग्रहकृष्टिके असंख्यातवें भागमात्र कृष्टियोंको समय समय में नष्ट करता है । क्रोधकी प्रथम कृष्टिको छोड़कर शेष ग्यारह कृष्टियोंके (नीचे और उनके अन्तरालमें ) अपूर्व कृष्टियोंको रचता है । - शंका- - उन अपूर्व कृष्टियों को किस प्रदेशानसे रचता है ? समाधान - बध्यमान और संक्रम्यमाण प्रदेशाग्र से उन अपूर्व कृष्टियों को रचता है । बध्यमान प्रदेशाग्र से स्तोक अपूर्व कृष्टियोंको रचता है, किन्तु संक्रम्यमाण प्रदेशाग्रसे असंख्यातगुणी अपूर्व कृष्टियोंको रचता है। जो बध्यमान प्रदेशाप्रसे अपूर्व कृष्टियां रची जाती हैं वे चार प्रथम संग्रहकृष्टियोंमेंसे रची जाती हैं । शंका -उन कृष्टियोंको किस स्थानमें रचता है ? समाधान -- एक एक संग्रहकृष्टिकी अवयवकृष्टियों के अन्तरालों में रचता है । जमध. अ. प. ११८२. Jain Education International १ एत्थ णिव्वग्गणाओ त्ति वुत्ते बंधोदयजहण्ण किट्टीणमणंतगुणहाणीए ओसरणवियप्पा गहेयव्वा । २ कोहस्स पढमकिट्टी मोत्तूणेकारसंगहाणं तु । बंधणसं कमदव्वादपुव्वकिर्हि करेदी हु । लब्धि. ५३०. ३ बंधणदव्वादो पुण चदुसट्ठाणेसु पढमकिट्टीसु । बंधुष्पवकिट्टीदो संकमकिट्टी असंखगुणा ॥ लब्धि. ५३१. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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