SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 443
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ९-८, १६.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए किट्टीवेदणं [ ३८३ संतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि । द्विदिबंधो पुण संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । अणुभागसंतकम्मं कोधसंजलणस्स (जं) समऊणाए उदयावलियाए छद्दिदट्टियाए संतकम्मं तं सव्वघादि । संजलणाणं जे दो आवलियबंधा दुसमऊणा ते देसघादी । तं पुण फद्दयगर्द। अवसेसं सव्वं किट्टीगदं । तम्हि चेव पढमसमए कोधस्स पढमसंगहकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डिदण पढमट्ठिदिं करेदि । एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ किट्टी च ठिदिविसेसेसु असंखेज्जेसु णियमसा होदि । णियमा अणुभागेसु च होदि हु किट्टी अणंतेसु ॥ ३४ ॥ सव्वाओ किट्टीओ विदियट्टिदिए दु होंति सव्विस्से । जं किदि वेदयदे तिस्से अंसा य पढमाए ॥ ३५ ॥ ताधे कोधस्स पढमाए संगहकिट्टीए असंखेज्जा भागा उदिण्णा । एदिस्से चेव कोधस्स पढमाए संगहकिट्टीए असंखेज्जा भागा बज्झंति । सेसाओ दो संगहकिट्टीओ ण बज्झंति ण वेदिज्जति । पढमाए संगहकिट्टीए हेह्रदो जाओ किट्टीओ ण बझंति ण ................... असंख्यात वर्ष और स्थितिबन्ध संख्यात वर्षसहस्रमात्र होता है। संज्वलनक्रोधका जो अनुभागसत्व उच्छिष्टावलिरूपसे स्थित एक समय कम उदयावलिके भीतर है वह सत्व सर्वघाती है । संज्वलनचतुष्कके जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध हैं वे देशघाती हैं। उनका वह अनुभागसत्व स्पर्द्धकस्वरूप है। शेष सब अनुभागसत्व कृष्टिस्वरूप है। कृष्टिवेदककालके प्रथम समयमें ही क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिसे प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके प्रथमस्थितिको करता है । यहां उपयुक्त गाथायें कृष्टि नियमसे असंख्यात स्थितिभेदोंमें और नियमतः अनन्त अनुभागों में होती है ॥ ३४॥ सब अर्थात् संग्रह व अवयव कृष्टियां समस्त द्वितीयस्थितिमें होती हैं । परन्तु जिस कृष्टिका वेदन करता है उसके अंश प्रथमस्थितिमें रहते हैं ॥ ३५॥ __उस समयमें क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिके असंख्यात बहुभाग उदयप्राप्त हैं । इसी क्रोधकी प्रथम संग्रहक्रप्टिके असंख्यात बहभाग बंधको प्राप्त होते हैं। शेष दो संग्रहकृष्टियां न बंधती हैं और न उदयको प्राप्त होती हैं । प्रथम संग्रहकृष्टिकी अधस्तन १ से काले किट्टीओ अणुहवदि हु चारिमासमडवस्सं । बंधो संतं मोहे पुवालावं तु सेसाणं ॥लब्धि. ५११. २ ताहे कोहुच्छिटुं सव्वंघादी हु देसघादी हु। दोसमऊणदुआवलिणवकं ते फड़यगदाओ।। लब्धि. ५१२. ३ किट्टीवेदगपढमे कोहस्स य पढमसंगहादो दु। कोहस्स य पढमठिदी पत्तो उव्वट्टगो मोहे ॥ लब्धि. ५१४. ४ जयध अ. प. ११३४. ५ जयध. अ. प. ११३५. ६ पढमस्स संगहस्स य असंखभागा उदेदि कोहस्स । बंधे वि तहा चेव य माणतियाणं तहा बंधे ॥ लन्धि ५१५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy