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________________ ३७८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, १३. संगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । मायाए माणस्स च अंतरमणंतगुणं । माणस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । विदियसंगहकिट्टीअंतरमणतगुणं । तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । माणस्स कोधस्स य अंतरमणंतगुणं । कोधस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । कोधस्स चरिमादो किट्टीदो लोभस्स अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए अंतरमणंतगुणं । पढमसमए किट्टीसु पदेसग्गस्स सेडिपरूवणं वत्तइस्सामो । तं जहा- लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं । विदियाए किट्टीए पदेसग्गं विसेसहीणमणंतभागेण । एवं अणंतरोवणिधाए विसेसहीणमणंतभागेण जाव कोधस्स चरिमकिट्टि त्ति । परंपरोवणिधाए जहणियादो लोभकिट्टीदो उक्कस्सियाए कोधकिट्टीए पदेसग्गं विसेसहीणमणतभागेण । विदियसमए अण्णाओ अपुन्बाओ किट्टीओ करेदि पढमसमए णिव्वत्तिदकिट्टीणमसंखेज्जदिभागमेत्ताओ। एक्कक्किस्से संगहकिट्टीए हेट्ठा अपुवाओ किट्टीओ करेदि । विदियसमए दिज्जमाणस्स पदेसग्गस्स सेडिपरूवणं वत्तइस्सामो । तं जहा- लोभस्स अनन्तगुणा है। द्वितीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। माया और मानका अन्तर अनन्तगुणा है। मानका प्रथम संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। द्वितीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है । मानका और क्रोधका अन्तर अनन्तगुणा है। क्रोधका प्रथम संग्रहकृष्टिअन्तर अनन्तगुणा है। द्वितीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है । तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है । क्रोधकी अन्तिम कृष्टिसे लोभके अपूर्वस्पर्द्धकोंकी प्रथम वर्गणाका अन्तर अनन्तगुणा है। प्रथम समयमें निवर्तमान कृष्टियों में दिये जानेवाले प्रदेशाग्रकी श्रेणिप्ररूपणाको कहते हैं । वह इस प्रकार है- लोभकी जघन्य कृष्टिमें प्रदेशाग्र बहुत है। द्वितीय कृष्टिमें प्रदेशाग्र अनन्तवें भागसे विशेष हीन है । इस प्रकार क्रोधकी अन्तिम कृष्टि तक अनन्तर क्रमसे प्रत्येक कृष्टिमें दिया जानेवाला प्रदेशाय अनन्तवें भागसे विशेष हीन है । परम्परा क्रमानुसार जघन्य लोभकृष्टिसे उत्कृष्ट क्रोधकृष्टिका प्रदेशाग्र अनन्तवें भागसे विशेष हीन है। द्वितीय समयमें, प्रथम समयमें निर्वर्तित कृष्टियोंके असंख्यातवें भागमात्र अन्य अपूर्व कृष्टियोंको करता है। एक एक संग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्व कृष्टियोंको करता है। द्वितीय समयमें दीयमान प्रदेशाग्रकी श्रेणिप्ररूपणाको कहते हैं । वह इस प्रकार है १ लोमादी कोहो ति म सहाणंतरमणंतगुणिदकमं । तत्तो बादरसंगहकिट्टीअंतरमणतगुणिदकमं ॥ लब्धि.४९९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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