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________________ १, ९-८ १६.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए किट्टीकरणविहाणं [ ३७० किट्टीणं अंतराणि जहाकमेण जाव चरिमादो अंतरादो अणंतगुणाए सेडीए णेदव्वाणि । तदो लोभस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं' । तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । लोभस्स मायाए च अंतरमणंतगुणं । मायाए पढम क्रोधकी भी तीन संग्रहकृष्टियों के अन्तर क्रमानुसार अन्तिम अन्तर तक अनन्तगुणित श्रेणीसे ले जाना चाहिये । उससे अर्थात् स्वस्थान गुणकारोंमें अन्तिम गुणकारसे लोभका प्रथम संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। द्वितीय संग्रहकृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है। तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। विशेषार्थ-लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तिम कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर द्वितीय संग्रहकृष्टिकी प्रथम कृष्टिको प्राप्त होती है वह गुणकार लोभका प्रथम संग्रह कृष्टि-अन्तर कहलाता है। उसी प्रकार द्वितीय संग्रहकृष्टिकी अन्तिम कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर तृतीय संग्रह कृष्टिकी प्रथम कृष्टिको प्राप्त होती है वह गुणकार द्वितीय संग्रहकृष्टि-अन्तर कहलाता है। लोभका तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर जयधवलाकारने तीन प्रकारसे बतलाया है । (१) लोभकी द्वितीय संग्रहकृष्टिसंबंधी अन्तिम कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर लोभकी ही तृतीय कृष्टिसंबंधी अन्तिम कृष्टिको प्राप्त होती है वह लोभका तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर है। अथवा, (२) तृतीय संग्रहकृष्टि और अपूर्वस्पर्द्धककी आदि वर्गणाका अन्तर तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर समझना चाहिये। अथवा, (३) लोभकी तृतीय और मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिका गुणकार लोभका तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर है। इसी प्रकार मायादिकके भी संग्रहकृष्टि-अन्तर जानना चाहिये। लोभ और मायाका अन्तर अनन्तगुणा है। मायाका प्रथम संग्रहकृष्टि अन्तर १ प्रतिषु । -संगहकिट्टीए अंतर-' इति पाठः । २ लोभस्स पढमसंगहकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा विदियसंगहकिट्टीए पढमकिहि पावदि सो गुणगारो लोभस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरं णाम । जयध. अ. प. ११२१. ३ विदियसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा तदियसंगहकिट्टीए पढमकिहि पावदि सो गुणगारो विदियसंगहकिट्टीअंतरं णाम । जयध. अ. प. ११२२. ४ लोभस्स तदियसंगहकिट्टीअंतरामिदि वुत्ते लोभस्स विदियसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा लोभस्स चेव तदियसंगहकिट्टीए चरिमकिहि पावेदि सो गुणगारो घेत्तव्यो।xxx अधवा तदियसंगहकिट्टीए अपुवफद्दयादिवग्गणाए अंतरं तदियसंगहकिट्टीअंतरामिदि घेत्तव्वं, संगहकिट्टीफद्दयंतरस्स वि कथंचि संगहकिट्टीअंतरत्तेण णिद्देसे विरोहाभावादो।xxx अधवा लोभस्स तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणमिदि वुत्ते लोभ-मायाणमेव तदिय-पढमसंगहकिट्टीणं संधिगुणगारो गहेयव्वो। ण च तहावलंबिजमाणे उवरिमसुत्तेण पुणरत्तभावो वि, तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणमिदि सामण्णणिद्देसेणेदेण तं कदममिदि संदेहे समुप्पण्णे तण्णिरायरणमुहेण लोभ-मायाणमंतरमेव तदियसंगहकिट्टीअंतरमिह विवक्खियं, ण ततो अण्णमिदि पदुप्पायणट्ठमुवरिमसुत्तारंभे पुणरुत्तदोसासंमवादो। जयध. अ. प. ११२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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