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________________ १, ९-८, १६.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए किट्टीकरणविहाणं [ ३७९ जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं दिज्जदि । विदियाए किट्टीए विसेसहीणमणंतभागेण । ताव अणंतभागहीणं जाव अपुव्वाणं चरिमादो त्ति । तदो पढमसमयणिव्वत्तिदाणं जहणियाए किट्टीए विसेसहीणमसंखेज्जदिभागेण । तदो विदियाए अणंतभागहीणं । तेण परं पढमसमयणिव्यत्तिदासु लोभस्स पढमसंगहकिट्टीए किट्टीसु अणंतराणंतरेण अणतभागहीणं दिज्जदि जाव पढमसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टि त्ति । तदो लोभस्स चेव विदियसमए विदियसंगहकिट्टीए तिस्से जहणियाए किट्टीए दिज्जमाणं विसेसाहियमसंखेज्जदिभागेण । तेण परमणंतभागहीणं जाव अपुवाणं चरिमादो त्ति । तदो पढमसमयणिव्वत्तिदाणं जहणियाए किट्टीए विसेसहीणमसंखेज्जदिभागेण । तेण परं विसेसहीणमणंतभागेण जाव विदियसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टि त्ति । तदो जहा विदियसंगहकिट्टीए विही तहा चेव तदियसंगहकिट्टीए विही वि । तदो लोभस्स चरिमादो किट्टीदो मायाए जा' विदियसमए जहणिया किट्टी लोभकी जघन्य कृष्टिमें प्रदेशाग्र बहुत दिया जाता है । द्वितीय कृष्टि में वह अनन्तवें भागसे विशेष हीन दिया जाता है। इस प्रकार तब तक अनन्तवें भागसे हीन दिया जाता है जब तक कि लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिके नीचे निर्वतमान अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृषि प्राप्त होती है। उससे प्रथम समयमें निर्वर्तित लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी अन्तरकृष्टियों से जघन्य धिमें असंख्यातवें भागसे विशेष हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। उससे द्वितीय कृष्टिमें अनन्तभाग हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। उसके आगे प्रथम समयमें निर्वर्तित लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी अन्तरकृष्टियोंमें, अनन्तर-अनन्तररूपसे प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तिम अन्तरकृष्टि तक अनन्तभाग हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। उससे, लोभकी ही द्वितीय समयमें निवर्तमान उस द्वितीय संग्रहकृष्टिकी जघन्य कृष्टिमें दीयमान प्रदेशाग्र असंख्यातवें भागसे विशेष अधिक है। उसके आगे द्वितीय संग्रहकृष्टिके नीचे निवर्तमान अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टि तक अनन्तभाग हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। उससे, प्रथम समयमें निर्वर्तित पूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें असंख्यातवें भागसे विशेष हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। इससे आगे द्वितीय संग्रहकृष्टिकी अन्तिम कृष्टि तक अनन्तवें भागसे विशेष हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । तत्पश्चात् द्वितीय संग्रहकृष्टिमें जैसी विधि निरूपित की गई है वैसी ही विधि तृतीय संग्रहकृष्टिमें भी जानना चाहिये। __ पश्चात् लोभकी अन्तिम कृष्टिसे मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिके नीचे द्वितीय समयमें निवर्तमान अपूर्व कृष्टियों में जो जघन्य कृष्टि है उसमें असंख्यातवें भागसे विशेष १ प्रति जाव' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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