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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, १५. संघसहस्सेसु गदेसु चरिमसमयअपुव्वकरणं पत्तो ।
से काले पढमसमयअणियट्टिस्स आवासयाणि वत्तइस्सामा । तं जधापढमसमयअणियट्टिस्स अण्णो विदिखंडओ पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो, अण्णो अणुभागखंडओ सेसस्स अणंता भागा, अण्णो द्विदिबंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण हीणो' । पढमद्विदिखंडओ विसमो, जहण्णादो उक्कस्सओ संखेज्जदिभागुत्तरो । पढमे द्विदिखंडए हदे सव्यस्स तुल्लकाले अणियट्टि पविट्ठस्स ठिदि. संतकम्मं तुलं । ठिदिखंडओ वि सव्वस्स अणियदि पविट्ठस्स विदियद्विदिखंडयादो विदियट्ठिदिखंडओ तुल्लो, तदियादो तदियो तुल्लो । एवं सव्वत्थ । द्विदिवंधो सागरोबमसहस्सपुधत्तं अंतोसदसहस्सस्स' । द्विदिसंतकम्मं सागरोवमसदसहस्सपुधत्तं अंतोकोडा
बीतनेपर अपूर्वकरणका अन्तिम समय प्राप्त होता है।
अनन्तर समयमें प्रथमसमयवर्ती हुए अनिवृत्तिकरणके आवासोको कहते हैं । वह इस प्रकार है- प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरणके अन्य स्थितिकांडक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण, अन्य अनुभागकांडक शेष अनुभागके अनन्त बहुभागमात्र और अन्य स्थितिबन्ध पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन प्राप्त होता है। अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें वर्तमान नाना जीवोंका प्रथम स्थितिकांडक विषम है अर्थात् समान नहीं है। जघन्य प्रथम स्थितिकांडकसे उत्कृष्ट प्रथम स्थितिकांडक पल्यके संख्यातवें भागसे अधिक है। समान कालमें अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट सब जीवोंका स्थितिसत्व प्रथम स्थितिकांडकके नष्ट होने पर तुल्य है। अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट सबका स्थितिकांडक भी द्वितीय स्थितिकांडकसे द्वितीय स्थितिकांडक तुल्य है और तृतीयसे तृतीय स्थितिकांडक तुल्य है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये। जो स्थितिबन्ध पूर्वमें अन्तःकोड़ाकोडिप्रमाण था वह अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें सागरोपमसहस्रपृथक्त्वमात्र होता हुआ लक्षसागरोपमके भीतर हो जाता है । इसी प्रकार जो स्थितिसत्व अन्ताकोड़ाकोडिप्रमाण था वह घटकर इस समय लक्षपृथक्त्व सागरोपमप्रमाण होता हुआ कोडाकोड़ीके भीतर ही रहता
१ अणियहिस्स प पढमे अण्णं ठिदिखंडपहदिमारवई । लब्धि. ४११.
२ बादरपढमे पटमं ठिदिखडं विसरिसं तु विदियादि । ठिदिखंडयं समाण सबस्स समाणकालम्हि ।। पारस संखभागं अबरं तु वरं तु संखभागहियं । घादादिमठिदिखंडो सेसा सव्वस्स सरिसा हु। लब्धि. ४१२-४१३.
३ पुव्वमंतोकोडाकोडिपमाणो होतो ठिदिबंधो अघुबकरणद्धाए संखेजसहस्समेत्तेहि हिदिबंधोसरणेहि सुद्ध ओहहियूण अणियट्टिकरणपटमसमये सागरोवमसहस्सपुधत्तमेत्तो हो?ण अंतासागरोवमसदसहस्सस्स पयट्टदि त्ति वुत्तं होदि ।। जयध. अ. प. १०७५.
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