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________________ १, ९-८, १६. ] चूलियाए सम्मत्तप्पत्तीए खइयचास्तिपडिवज्जणविहाणं ओकडुदि जे अंसे से काले ते च होंति भजिदव्वा । बड्डीए अबट्ठाणे हाणीए संक्रमे उदए' ।। २२ ।। एक्कं च ठिदिविसेस तु असंखेज्जेसु ट्ठिदिविसेसेसु । वड्डेदि रहस्सेदि च तहाणुभागेसणंतेसु ॥ २३ ॥ तदो ट्ठदिबंध सहस्से गदेसु परभवियणामाणं वंधवोच्छेदो जादो । तदो हिदि [ ३४७ जिन कर्माशोंका अपकर्षण करता है वे अनन्तर कालमें स्थित्यादिकी वृद्धि, अवस्थान, हानि, संक्रमण और उदय, इनसे भजनीय हैं, अर्थात् अपकर्षण किये जाने के अनन्तर समय में ही उनमें वृद्धि आदिक उक्त क्रियाओंका होना संभव है ॥ २२ ॥ एक स्थितिविशेषका उत्कर्षण अथवा अपकर्षण करनेवाला नियमसे असंख्यात स्थितिविशेषोंमें बढ़ाता अथवा घटाता है । इसी प्रकार एक अनुभागस्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाका उत्कर्षण अथवा अपकर्षण करनेवाला नियमसे अनन्त अनुभागस्पर्धकों में ही बढ़ाता अथवा घटाता है | इसका अभिप्राय यह है कि एक स्थितिका उत्कर्षण करनेमें जघन्य निक्षेप आवली के असंख्यातवें भागमात्र, व अपकर्षण करने में जघन्य निक्षेप आवलीके त्रिभागमात्र होता है, तथा अनुभाग के उत्कर्षण व अपकर्षणका जघन्य व उत्कृष्ट निक्षेप अनन्त अनुभागस्पर्धकप्रमाण होता है || २३ ॥ पश्चात् स्थितिबन्धसहस्रोंके वीतनेपर देवगति, पंचेन्द्रियजाति आदि परभविक नामकर्म प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है । इसके ऊपर स्थितिबन्धसहस्रोंके त्ति वृत्तं होइ । ' से काले' तदनंतरसमय पहुडि तेण परं तत्तो उवरि होंति भजियव्त्रा भयणिज्जा भवंति । संक्रमणावलियमेत्तकाले वदिकंते तत्तो परे संकामिदा उक्कड्डिदा च जे कम्मंसा ते वड्ढिहाणिअवट्ठाणादिकिरियार्हि भयणिज्जा होंति । तत्तो परं तप्पवृत्तीए पडिसेहाभावादो त्ति वृत्तं होदि । जयथ. अ. प. १०९७. लब्धि. ४०२. १ एदस्त भावत्थो - ओडिदपदेसग्गं किंचि तदणंतरसमए चेव पुणो उक्कड्डिज्जदि किंचि ण उक्कड्डिज्जदित्ति एवं वडीए भजिदव्यमत्राणे त्रि ! ओ दिपदेसग्गं किंचि सत्यागे चेत्र अच्छाद किंचि अण्णं किरियं गच्छदित्ति भयणिज्जं । एवमोडणाए संक्रमोदहि भयणिज्जत्तं जोजेयव्वं । ओकड्डिदविदियसमए चेव पुणो वि ओकणादीर्ण पवृत्तीए बाहाणुवलंभादो त्ति । जयध. अ. प. १०९७. लब्धि. ४०३. २ ' एकं च द्विदिविसेसं' एवं भणिदे एवं द्विदिविसेसमुक्कड्डेमाणो णियमा असंखेज्जेसु विदिविसेसेसु वदि चि देण जहणदो वि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो चेव उक्कणाए णिक्खेवसिओ होदि, गो हेट्ठा त्ति जाणाविदं । तहा एक्कं च द्विदिविसेसमो कट्टेमाणो नियमा असंखेज्जेसु हिदि विसेसेसु रहस्सेदि णो हेडा ति देवि विदि सुतावयवेण जहण्णदो वि ओकट्टणाए आवलियतिभागमेत्तेण णिक्खेत्रेण होदव्यमिदि जाणाविदं । ' तहाणुभागेसणंतेसु ' एवं भणिदे एगमणुभागफद्दयवग्गणमुक्कड्डेमाणो ओकड्डेमाणो च णियमा अणतेसु चेवाणुभागफदएस, वह्वृदि हरस्सेदि वेत्ति भणिदं होदि । एदेण अणुभागविसयाणमो कक्कड्डाणं जहणणुक्कस्सणिक्खैवपाणावहारणं कथं । जयध. अ. प. १०९८. लब्धि. ४०४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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