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________________ ३१५] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, १६. सेसस्स अणंता भागा । एवं संखेज्जेसु अणुभागखंडयसहस्सेसु गदेसु अण्णो अणुभागखंडओ पढमट्ठिदिखंडओ अपुरकरणे पढमदिदिबंधों च एदाणि तिण्ण वि समगं णिद्विदाणि । एवं द्विदिबंधसहस्सेहि गदेहि अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जदिभागे गदे णिहा-पयलाणं बंधवोच्छेदो जादो । ताधे चेव ताणि गुणसंकमेण संकमंति । ओवट्टणा जहण्णा आवलिया ऊणिया तिभागेण । एसा द्विदिसु जहण्णा तहाणुभागेसणंतेसु ॥ २० ॥ संकामेदुक्कड्डदि जे असे ते अवट्ठिदा होति । आवलियं से काले तेण परं होंति भजिव्वा ॥ २१ ॥ शेष रहे अनुभागके अनन्त वहुभागमात्र है। इस प्रकार संख्यात अनुभागकांडकसहस्रोंके वीतनेपर अन्य अनुभागकांडक, प्रथम स्थितिकांडक, और जो अपूर्वकरणके प्रथम समयमें स्थितिबन्ध बांधा था वह, ये तीनों ही एक साथ समाप्त होते हैं। इस प्रकार स्थितिबन्धसहस्रोंके वीतनेसे अपूर्वकरणकालका संख्यातवां भाग व्यतीत होनेपर निद्रा व प्रवला प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है। उसी समय वे दोनों प्रकृतियां गुणसंक्रमण द्वारा अन्य प्रकृतियों में संक्रमण करती हैं। यहां संक्रमणमें जघन्य अतिस्थापनाका प्रमाण एक त्रिभागसे हीन आवलीमात्र है। यह जघन्य अतिस्थापनाका प्रमाण स्थितियोंके विषयमें ग्रहण करना चाहिये। . अनुभागविषयक जघन्य अपवर्तना अनन्त स्पर्धकोंसे प्रतिबद्ध है। अर्थात् जब तक अनन्त स्पर्धकोंकी अतिस्थापना नहीं होती तब तक अनुभागविषयक अपकर्षणकी प्रवृत्ति नहीं होती ॥२०॥ जिन कर्मप्रदेशोंका संक्रमण अथवा उत्कर्षण करता है वे आवलीमात्र काल तक अवस्थित अर्थात् क्रियान्तरपरिणामके विना जिस प्रकार जहां निक्षिप्त है उसी प्रकार ही वहां निश्चलभावले रहते हैं। इसके पश्चात् उक्त कर्मप्रदेश वृद्धि, हानि एवं अवस्थानादि क्रियाओंसे भजनीय हैं ॥ २१ ॥ ...................................... १ प्रतिषु पढमट्ठिदिखंडओ बंधो' इति पाठः । २ संखेजेसु अणुभागखंडयसहस्सेसु गदेसु अण्णमणुभागखंडयं पढमहिदिखंडयं च जो च पढमसमए अपुवकरणे द्विदिबंधो पबद्धो एदाणि तिण्णि त्रि समग णिष्ट्रिदाणि | जयध. अ.प. १०७३. ३ ‘ओवट्टणा जहण्णा ' एवं भणिदे हिदिमोकड्डेमाणो जहण्णदो वि आवलियाए वेत्तिभागमेत्तमइच्छाविऊण निक्खिवदि त्ति भणिदं होदि । ' एसा डिदिसु जहण्णा ' एवं भणिदे हिदिविसया एसा जहणाइच्छावणा ओकड्डणाविसए घेत्तव्बा ति उत्तं होइ । 'तहाणुभागेसणंतेसु ' एवं भणिदे अणुभागविसया ओवट्टणा जहण्णे वि अणंतेसु फद्दएसु पडिबद्धा । जाव अणंताणि फद्दयाणि णाहिच्छाविदाणि ताव अणुभागविसया ओकगुणा ण पयदि त्ति वुत्तं होइ । जयध. अ. प. १०९६. लब्धि. ४०१. ४' संकामेदुकढदि ' एवं भणिदे संकामेदि वा उक्कड्डेदि वा जे कम्मपदेसे ते आवलियमत्तकालमवहिदा होति, आवलियमेत्तकालं किरियंतरपरिणामेण विणा जहा जत्थ णिक्खित्ता तहा चेव तत्थ णिच्चलभावेणावचिट्ठति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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