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________________ १, ९-८, १६.] चूलियाए सम्मनुप्पत्तीए खइयचारित्तपडिवज्जणविहाणं [३०५ कसायाणं खवणाए अपुव्वकरणपढमठिदिखंडयं जहण्णमुक्कस्सं पि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो, अपुत्रकरणे सव्वत्थ संखेज्जगुणहीणं । संखेज्जगुणहीणहिदिसंतकम्माणं ठिदिखंडयाणि तप्पडिभागियाणि चेव । अपुव्वकरणस्स पढमसमए पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागियं द्विदिखंडयमायुगवज्जाणं कम्माणं गेण्हदि । अप्पसस्थाणं कम्माणमणुभागस्स अणते भागे खंडयं गेण्हदि । पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागं द्विदिवंधेण ओसरदि। गुणसेडी उदयावलियबाहिरे णिक्खित्ता अपुव्वकरणद्धादो अणियट्टिकरणद्धादो च विसेसाहिया । जे अप्पसत्थकम्मंसा ण बज्झति तेर्सि कम्माणं गुणसंकमो जादो' । द्विदिबंधो ट्ठिदिसंतकम्मं च सागरोवमकोडिसदसहस्सपुधत्तं अंतोकोडाकोडीए । बंधादो पुण संतकम्मं संखेज्जगुणं । एसा अपुवकरणपढमसमयपरूवणा। एत्तो विदियसमए णाणत्तं । तं जधा- असंखेज्जगुणदव्वमोकद्विदण गलिदसेसं गुणसेडिं करेदि । विसोधी च अणंतगुणा । सेसेसु आवासएसु णत्थि णाणत्तं । एवं जाव पढमाणुभागखंडओ समत्तो ति । तदो से काले अण्णो अणुभागखंडओ आगाइदो ................................ क्षपणामें अपूर्वकरणसम्बन्धी प्रथम स्थितिकांडक जघन्य और उत्कृष्ट भी पल्योपमके संख्यातवें भागमात्र ही है, और अपूर्वकरणमें सर्वत्र संख्यातगुणा हीन होता है। संख्यातगुणे हीन स्थितिसत्ववाले कर्मोंके स्थितिकांडक भी संख्यातगुणे हीन ही हैं। अपूर्वकरणके प्रथम समयमें आयुको छोड़कर शेष कौके पल्योपमके संख्यातवें भागमात्र स्थितिकांडकको ग्रहण करता है। अप्रशस्त कौंके अनुभागके अनन्त बहुभागरूप कांडकको ग्रहण करता है । पत्योपमका संख्यातवां भाग स्थितिबन्धसे घटता है। उदया. वलिके बाहिर निक्षिप्त गुणश्रेणी अपूर्वकरणकाल और अनिवत्तिकरणकालसे विशेष अधिक है। जो अप्रशस्त कर्म नहीं बंधते हैं उन कर्मीका गुणसंक्रमण होता है। स्थितिबन्ध और स्थितिसत्व अन्तःकोटाकोटिके भीतर कोटिलक्षपृथक्त्व सागरोपमप्रमाण होता है। परन्तु बन्धकी अपेक्षा सत्व संख्यातगुणा है। यह अपूर्वकरणके प्रथमसमयविषयक प्ररूपणा हुई। इससे द्वितीय समयमें विशेषता है । वह इस प्रकार है-असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके गलितशेष गुणश्रेणीको करता है। विशुद्धि भी अनन्तगुणी है। शेष आवासोंमें कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार प्रथम अनुभागकांडकके समाप्त होने तक यही क्रम है । तब अनन्तर समयमें अन्य अनुभागकांडकको ग्रहण करता है जो घात करनेसे १ पडिसमयमसंखगुणं दव्वं संकमदि अप्पसत्थाणं | बंधुझियपयडीणं बंधंतसजादिपयडीसु ॥ लब्धि.४००. २ अंतोकोडाकोडी अपुव्वपढमम्हि होदि ठिदिबंधो। बंधादो पुण सत्तं संखेज्जगुणं हवे तत्थ । लन्धि.४०७. ३ पडिसमयं उक्कट्टदि असंखगुणिदक्कमेण संचदि य । इदि गुणसेढीकरणं पडिसमयमपुत्वपटमादो। लब्धि. ३९९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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