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________________ ३४४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१,९-८, १६. णीयस्स खवणाए अधापवत्तकरणद्धा अपुव्वकरणद्धा अणियट्टीकरणद्धा चेदि तिण्णि अद्धाओ हवंति । ताओ तिणि अद्धाओ वि एगसंबद्धाओ एगावलियाए ओवट्टिदव्याओ । तदो जाणि कम्माणि अत्थि तेसिं द्विदीओ ओट्टिदव्याओ। तेसिं चेव अणुभागफहयाणं जहण्णफद्दयप्पहुडि एया फद्दयावलिया ओट्टिदव्वा । एत्थ अधापवत्तकरणे वट्टमाणयस्स णस्थि द्विदिघादो अणुभागघादो वा । केवलमणतगुणाए विसोहीए वड्ढदि । अपुरकरणपढमसमए द्विदिखंडओ अप्पसत्याणं कम्माणमषुभागखंडओ च आगाइदो । अपुवकरणे पढमद्विदिखंडयस्स पमाणाणुगमं वत्तइस्सामो। तं जहा–अपुव्वकरणे पढमद्विदिखंडयं जहण्णयं थोवं। उक्कस्सयं संखेज्जगुणं । उक्कस्सयं पि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । जहा दंसणमोहणीयस्स उवसामणाए तस्सेव खवणाए अणताणुबंधीविसंजोयणाए कसायाणमुवसामणाए च अपुधकरणपढमहिदिखंडयं जहणं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो, उक्कस्सयं सागरोवमपुधत्तं, तधा एत्थ णत्थि । एत्थ पुण करणकाल और अनिवृत्तिकरणकाल, ये तीन काल होते हैं। एक एकसे सम्बद्ध उन तीनों कालोंको एक आवलीसे अपवर्तित करना चाहिये। पश्चात् जो कर्म सत्तामें हैं उनकी स्थितियोंको आवलीसे अपवर्तित करना चाहिये। उन्हीं कर्मोके अनुभागस्पर्धकोंकी जघन्य स्पर्धकसे लेकर एक एक स्पर्धकावली अपवर्तनीय है। यहां अधःप्रवृत्तकरणमें वर्तमान जीवके स्थितिघात और अनुभागघात नहीं हैं। वह केवल अनन्तगुणी विशुद्धिसे बढ़ता है। अपूर्वकरणके प्रथम समय में अप्रशस्त कर्मोंका स्थितिकांडक और अनुभागकांडक प्रारंभ होता है। अपूर्वकरणमें प्रथम स्थितिकांडकके प्रमाणानुगमको कहते हैं। वह इस प्रकार है - अपूर्वकरणमें जघन्य प्रथम स्थितिकांडक स्तोक है। उत्कृष्ट स्थितिकांडक संख्यातगुणा है। उत्कृष्ट भी पल्योपमके संख्यातवें भागमात्र है । जिस प्रकार दर्शनमोहनीयकी उपशामनामें, उसीकी क्षपणामें, अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनामें और कषायोंकी उपशामनामें अपूर्वकरणसम्बन्धी जघन्य प्रथम स्थितिकांडक पल्योपमके संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण है, उस प्रकार यहां नहीं है। यहां कषायोंकी १ गुणसेढी गुणसंकम ठिदिरसखंडाण णत्थि पढमम्हि । पडिसमयमणंतगुणं विसोहिवड्डीहि वड्ढदि हु॥ लब्धि. ३९३, २ पल्लस्स संखभागं वरं पि अवरादु संखगुणिदं तु। पढमे अपुविखवणे ठिदिखंडपमाणयं होदि ॥ लब्धि. ४०५. एत्थ जहणणयं संखेज्जगुणहीणहिदिसंतकम्मियस्स गहेयव्यमुक्कस्सयं पुण संखेजगुणट्ठिदिसंतकम्मियस्स गहेयव्वं । उक्कस्सयं पि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो क्ति वुत्ते जहा जहण्णय पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागपमाणमेवमुक्कस्सयं पि दट्ठव्वं, ण तत्थ पयारंतरसंमवो त्ति वृत्तं होदि । जयध. अ. प. १०७२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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