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________________ ३४२ ] छक्खडागमे जीवद्वाणं [ १, ९-८, १५. माणस्स अपुव्वकरणस्स चरिमसमए द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । पडिवदमाणयस्स अपुव्वकरणस्स चरिमसमए द्विदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । पडिवदमाणयस्स अपुत्रकरणस्स पढमसमए ट्ठिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । पडिवमाणयस्स अणियट्टिस्स चरिमसमए द्विदिसंतकम्मं विसेसाहियं । उवसामगस्स अणियट्टिस्स पढमसमए द्विदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । उवसामगस्स अपुव्वकरणस्स चरिमसमए द्विदिसंतकम्मं विसेसाहियं । उवसामगस्स अपुव्वकरणस्स पढमसमए द्विदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । संपुष्णं चारित्तं पडिवज्जंतस्स सरूवणिरूवणट्टमुत्तरमुत्तं भणदिसंपुण्णं पुण चारितं पडिवज्जंतो तदो चत्तारि कम्माणि अंतोमुहुत्तट्टिदि वेदि णाणावरणीयं दंसणावरणीयं मोहणीयमंतराइयं चेदि ॥ १५ ॥ तदो अंतोकोडाकोडीदो द्विदिबंधादो विसेसहीणा' घादिज्जमाणादो चतारि संख्यातगुणा है (९०) । उतरनेवालेके अपूर्वकरण के अन्तिम समय में स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (९१) । उतरनेवालेके अपूर्वकरणके अन्तिम समय में स्थितिसत्व संख्यातगुणा है (९२) । उतरनेवालेके अपूर्वकरणके प्रथम समय में स्थितिसत्व विशेष अधिक है (९३) । उतरनेवालेके अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय में स्थितिसत्व विशेष अधिक है (९४) । उपशामक के अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में स्थितिसत्व संख्यातगुणा है ( ९५ ) । उपशामक के अपूर्वकरणके अन्तिम समय में स्थितिसत्व विशेष अधिक है ( ९६ ) । उपशामक के अपूर्वकरणके प्रथम समय में स्थितिसत्व संख्यातगुणा है ( ९७ ) । सम्पूर्ण चारित्रको प्राप्त करनेवालेके स्वरूपनिरूपण के लिये उत्तरसूत्र कहते हैंसम्पूर्ण चारित्रको प्राप्त करनेवाला ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, इन चार कर्मों की अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थितिको स्थापित करता है ॥ १५ ॥ सम्पूर्ण चारित्रको प्राप्त करनेवाला क्षपक उत्तरोत्तर नाश किये जानेके कारण अन्तःकोटाकोटिप्रमाण स्थितिबन्धकी अपेक्षा विशेष हीनताको प्राप्त हुए ज्ञानावरणादि १ चडपड अव्वपरमो चरिमो ठिदिबंधओ य पडणस्से । तच्चरिमं ठिदिसंतं संखेज्जगुणककमा अड्ड || लब्धि. ३८९. २ तप्पट दिसतं पडिवडअणियट्टिच रिमठिदिसत्तं । अहियकमा चलबादरपदमट्टिदिसत्तयं तु संखगुणं ॥ रुन्धि. ३९०. ३माण पुव्वस्य चरिमट्टि दिसत्तयं विसेसहियं । तस्सेव य पटमठिदीसत्तं संखेज्जसंगुणियं ॥ ४ अप्रतौ ' विसेसाहिणा ' कप्रतौ ' विसेसाहिया ' इति पाठः । कन्धि. ३९१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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