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________________ (२५) षटखंडागमकी प्रस्तावना प्रकृतिसमुत्कीर्तन बन्धस्थान प्रथमसम्यक्त्व उत्कृष्ट जघन्य अभिमुखके बन्धयोग्य है | स्थिति | आबाधा | स्थिति आबाघा या नहीं । स्यात मूलप्रकृति उ. प्रकृति अन्तर्मु. xx. (२) जाति १ एकेन्द्रिय | मिथ्यादृष्टि नहीं २० को.२ व. स. सा.४ २ द्वीन्द्रिय १८ , १५, ३ त्रीन्द्रिय ४ चतुरिन्द्रिय ५ पंचेन्द्रिय | अपूर्वकरण तक | २० ॥ २ ॥ । १ औदारिक असं.सम्य.तक देव नारकी (३) शरीर ५ । । बांधते हैं (४) शरीर- || २ वैक्रियिक | अपूर्व. तक | तिर्य. मनुष्य । सा. बंधन ५। ३ आहारक अप्रमत्त और नहीं | अन्तः- अन्तर्मुहूर्त अन्तः(५) शरीर| अपूर्वकरण कोड़ाकोड़ी कोड़ाकोड़ी संघात ५ | ४ तैजस अपूर्वक. तक २. को. २ व.स. सा.x । ५ कार्मण (६) शरीर- १ समचतुरस्र अपूर्वक. तक संस्थान २ न्यग्रोध- मिथ्या. सासा. परिमंडल ३ स्वाति ४ कुब्जक ५ वामन मिथ्यादृष्टि (७) शरीरां- १औदारिक असंयत | देव नारकी गोपांग सम्य. तक | बांधते हैं २ वैक्रियिक अपूर्व. तक | तिय. मनुष्य बांधते हैं ३ आहारक अप्रमत्त नहीं | अन्तः- अन्तर्मुहूर्त अन्तःअपूर्वकरण कोड़ाकोड़ी कोडाकोड़ी (८) शरीर- १ वज्रवृषभ- असंयत देव नारकी | | १० को. व.स. सा.x संहनन नाराच | सम्य. तक | बांधते हैं २ वज्रनाराच मिथ्या. सासा. ३ नाराच ४ अर्धनाराच ५ कीलिक ६ असंप्राप्त | मिथ्यादृष्टि सेवर्त - इसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन ग्रहण करना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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