________________
१२४] छक्खंडागमे जीवडाणं
[ १, ९-८, १४. वेदो उवसंतो, एदिस्से अद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु णामा-गोद-वेदणीयाणमसंखेज्जवस्सट्ठिदिगो बंधो।
ताधे अप्पाबहुगं कायव्वं- सव्वत्थोवो मोहणीयस्स द्विदिबंधो । तिहं घादिकम्माणं ठिदिबंधो संखेज्जगुणो । णामा-गोदाणं द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो। वेदणीयस्स द्विदिबंधो विसेसाहिओ । एत्तो द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु इत्थिवेदमेगसमएण अणुवसंतं करेदि । ताधे चेव तमोकड्डिदूण उदयावलियबाहिरे गुणसेडिं करेदि । इदरेसिं कम्माणं जो गुणसेडीणिक्खेवो तत्तिओ चेव इत्थिवेदस्स वि । सेसे सेसे च णिक्खेवो । इत्थिवेदे अणुवसंते जाव णबुंसयवेदो उवसंतो, एदिस्से अद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु णाणावरण-दंसणावरण-अंतराइयाणं असंखेज्जवस्सट्ठिदिगो बंधो जादो। ताधे मोहणीयस्स द्विदिवंधो थोवो । तिण्हं घादिकम्माणं द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । णामा-गोदाणं विदिबंधो असंखेज्जगुणो । वेदणीयस्स विदिबंधो विसेसाहिओ।।
जाधे तिण्हं घादिकम्माणमसंखेज्जवस्सद्विदिगो बंधो, ताधे चेव एगसमएण जाणावरणीयं चउन्विहं, दसणावरणीयं तिविहं, पंचंतराइयाणि, एदाणि दुट्ठाणियाणि बंधेण
जब तक स्त्रीवेद उपशान्त है, तब तक इसी कालके संख्यात बहुभागोंके वीत जानेपर नाम, गोत्र व वेदनीय, इनका असंख्यात वर्षमात्र स्थितिसे संयुक्त बन्ध होता है।
उस समयमें निम्न प्रकार अल्पबहुत्व करना चाहिये । मोहनीयका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक होता है। तीन घातिया कौका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है। नाम बगोत्र कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है। वेदनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है। यहांसे स्थितिबन्धसहस्रोंके वीतनेपर स्त्रीवेदको एक समयमें अनुपशान्त करता है। उसी समयमें ही स्त्रीवेदका अपकर्षण करके उदयावलीके बाहिर गुणश्रेणी करता है । इतर कर्मोंका जो गुणश्रेणीनिक्षेप है उतना ही स्त्रीवेदका भी होता है। शेष शेषमें निक्षेप होता है । स्त्रीवेदके अनुपशान्त होनेपर जव तक नपुंसकवेद उपशान्त है, तब तक इस कालके संख्यात बहुभागोंके वतिनेपर शानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इनका बन्ध असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिवाला हो जाता है। उस समयमें मोहनीयका स्थितिबन्ध स्तोक, तीन घातिया कर्मीका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा, नाम व गोत्रका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा, तथा वेदनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है।
जब तीन घातिया कर्मोंका असंख्यात वर्षकी स्थितिवाला बन्ध होता है, उसी समय ही एक समयमें चार प्रकारका ज्ञानावरणीय, तीन प्रकारका दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय, ये बन्धसे दो स्थान (लता और दारु) वाले हो जाते हैं । पश्चात् संख्यात
र पुरिसे दु अपवसंते इत्थीउवसंतगो ति अद्धाए। संखाभागासु गदेससंखवस्सं अघादिठिदिवंधो । कन्धि. ३२५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org