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________________ १, ९-८, १४.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए पडिवदणविहाणं [३२५ जादाणि । तदो संखेज्जेसु हिदिबंधसहस्सेसु गदेसु णउसयवेदमणुवसंतं करेदि । ताधे चेव णउंसयवेदमोकड्डिदृण उदयावलियबाहिरे गुणसेडीए णिक्खिवदि । इदरेसिं कम्माणं गुणसेडीणिक्खेवेण सरिसो गुणसेडीणिक्खेवो । सेसे सेसे च गुणसेडीणिक्खेवो । णउंसयवेदे अणुवसंते जाव अंतरकदपढमसमयं ण पावदि, एदिस्से अद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु मोहणीयस्स असंखेज्जवस्सद्विदिओ बंधो जादो । तावे चेव मोहणीयस्स दुट्ठाणिया बंधोदया। सधस्स पडिवदमाणयस्स छसु आवलियासु गदासु उदीरणा त्ति स्थितिबन्धसहस्रोंके वीत जानेपर नपुंसकवेदको अनुपशान्त करता है। उसी समय ही नपुंसकवेदका अपकर्षण करके उदयावलीके बाहिर गुणश्रेणीमें निक्षेपण करता है। यह गुणश्रेणिनिक्षेप इतर कौके गुणश्रेणिनिक्षेपके सदृश होता है। शेष शेषमें गुणश्रेणिनिक्षेप होता है। नपुंसकवेदके अनुपशान्त होनेपर जब तक अन्तर करने के प्रथम समयको प्राप्त नहीं करता, तब तक इस कालके संख्यात बहुभागोंके वीत जानेपर मोहनीयका बन्ध असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिवाला हो जाता है। उसी समय ही मोहनीयका बन्ध व उदय दो स्थान (लता और दारु) रूप हो जाता है। सब उतरनेवालोंके छह आवलियोंके वीत जानेपर ही उदीरणा हो ऐसा नियम नहीं रहता, किन्तु बंधावलीके व्यतीत होनेपर उदीरणा होने लगती है। विशेषार्थ- उपशमश्रेणी चढते समयके लिये यह नियम बतलाया गया था कि कौका बन्ध होनेसे छह आवलियोंके पश्चात् ही उनकी उदारणा हो सकती है, उससे अल्प समयमें नहीं (देखो पृ. ३०२)। किन्तु श्रेणीसे उतरनेवालोंके लिये यह नियम नहीं है। कुछ आचार्योंका ऐसा मत है कि श्रेणीसे उतरते समय भी जब तक मोहनीयका संख्यात वर्षमात्र तकका स्थितिवन्ध होता है तब तक तो छह आवलियोंके वीतनेपर ही उदीरणाका नियम रहता है, किन्तु जब असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्धका प्रारंभ हो जाता है तब वह छह आवलियोंके पश्चात् उदीरणाका नियम नहीं रहता। किन्तु इसपर वीरसेनाचार्यका मत यह है कि यदि ऐसा माना जाय तो कषायप्राभृतके चूर्णिसूत्रवर्ती 'सव्वस्स पडिवदमाणयस्स' में जो 'सर्व' पदका प्रयोग हुआ है वह निष्फल हो जायगा। अतएव यही मानना चाहिये कि श्रेणी उतरते समय छह आवलियोंके पश्चात उदीरणाका नियम सर्वथा लागू नहीं होता। थीअणुवसमे पढमे वीसकसायाण होदि गुणसेढी। संदुवसमो ति मज्झे संखाभागेसु तोदेसु ॥ घादितियाणं णियमा असंखवस्सं तु होदि ठिदिबंधो। तकाले दुट्ठाणं रसबंधो ताण देसघादीण ॥ लब्धि. ३२७-३२८. २ संदणुवसमे पदमे मोहिगिवीसाण होदि गुणसेढी । अंतरकदो त्ति मज्झे संखाभागासु तीदासु ॥ मोहस्स भसंखेज्जा वस्सपमाणा हवेज ठिदिबंधो । ताहे तस्स य जादं बंधं उदयं च दुट्ठाणं ।। लब्धि. ३२९-३३०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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