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खंडागमे जीवाणं
[ १, ९-८, १४.
दुसमऊणा वि उवसामेदि' । जा उदयावलिया छद्दिदा सा थिउक्कसंकमेण किट्टीसु विपच्चिहिदि । विदियसमए उदिष्णाणं किट्टीणमग्गग्गादो असंखेज्जदिभागं मुंचदि,
दो अव्वमसंखेज्जदिभागमा कुंददि । एवं जाव चरिमसमयमुहुमसांपराइओति । चरिमसमय सुहुमसां पराइयस्स णाणावरण- दंसणावरण- अंतराइयाणमंतोमुहुत्तिओ हिदिबंधो। णामा-गोदाणं द्विदिबंधो सोलस मुहुत्ता । वेदणीयस्स ट्ठिदिबंधो चउवीस मुहुत्ता । से काले सव्वं मोहणीयमुवसंतं ।
तदो पाए अंतोमुहुत्तमुत्रसंतकसायवीदरागो । सव्विस्से उवसंतद्धाए अवदिपरिणामो । गुणसेडीणिक्खेवो उवसंतद्धाए संखेज्जदिभागो । ( केवल
कम दो आवलीमात्र समयप्रबद्ध थे उन्हें भी उपशान्त करता है । जो उदयाबली बादरसाम्परायिकके द्वारा स्पर्धकगत की गई थी वह अब कृष्टिरूप से परिणत होकर स्तिबुक संक्रमणके द्वारा परिपाकको प्राप्त है । द्वितीय समय में उदीर्ण कृष्टियों से उपरिम कृष्टिसे लेकर अधस्तन असंख्यातवें भाग को छोड़ता है, अर्थात् उतनी कृष्टियां उदयको प्राप्त नहीं होतीं । तथा अधस्तन अनुदयप्राप्त कृष्टियोंके असंख्यातवें भागमात्र अपूर्व कृष्टियोंको ग्रहण करता है अर्थात् उतनी कृष्टियां उदयको प्राप्त होती हैं । इस प्रकार चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक होने तक करता है । चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक के ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इनका अन्तमुहूर्तमात्र स्थितिवाला बन्ध होता है। नाम व गोत्र कर्मोंका स्थितिबन्ध सोलह मुहूर्तप्रमाण होता है । वेदनीयका स्थितिबन्ध चौबीस मुहूर्तमात्र होता है । अनन्तर कालमें सब मोहनीयकर्म उपशान्त हो जाता है ।
तबसे लेकर अन्तर्मुहूर्त तक
उपशान्तकषायवीतराग रहता है । समस्त उपशान्तकाल में अवस्थित परिणाम होता है । तथा ( ज्ञानावरणादि कर्मोंका ) गुणश्रेणीनिक्षेप उपशान्तकालके संख्यातवें भाग होता है । ( केवल
१ जयध. अ. प. १०३१. ये च समयोनद्वयावलिमात्र सं ज्वलन लोभनव कबंध समयबद्धास्ते च सूक्ष्मसाम्पराय प्रथमसमयादारभ्य समयं समयं प्रत्य संख्यातगुणितक्रमेणोपशाम्यन्ते ॥ लब्धि. २९९ टीका.
२ प्रतिषु ' जावे... छद्दिदा ताधे... ' इति पाठः ।
३ जा उदयावलिया छद्दिद्दा साथीबुकसंक्रमणे किट्टीसु विपच्चिहिदि । जा सा बादरांपराइएण पुत्रमुच्छ्ट्टिावलिआ छद्दिदा फछ्यगदा सा एहि किट्टिसरूत्रेण परिणमिय त्थिबुकसंक्रमेण विपच्चिहिदि ति भणिदं होदि । जयध. अ. प. १०३१.
४
आप्रतौ ' - माघंददी', अप्रतौ - माधंददि, कप्रतौ ' माघादेदि, मप्रतौ ' माघंददि इति पाठः । विदियादिसु समयेतु हि छंडदि पहा असंखभागं तु । आकुंददि हुअपुत्रा हेट्टा तु असंखमागं तु ॥ लब्धि. २९५. आकुंङदि आस्पृशति वेदयत्यवष्टाय गृह्णातीत्यर्थः । जयध. अ. प. १०३१.
५ प्रतिषु ' चवीस ' इति पाठः । अंतोमुहुत्तमेतं घादितियाणं जहणट्टिदिबंधो। णामदुगवे यणीये सोलस चडवीस य मुहुत्ता ॥ लब्धि. ३००.
६ उवसंतद्धा अंतोमुहुत्तपमाणा । एदिस्से उवसंतद्धाए संखेज्जदिमागमे चायामो एदस्स गुणसेटीणिक्खेवो
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