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१, ९-८, १४.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए पडिवदणविहाणं [३१७ णाणावरण केवलदसणावरणीयाणमणुभागुदएण सबउवसंतद्धाए अवट्ठिदवेदगो। णिहापयलाणं पि जाव वेदगो ताव अवढिदवेदगो। अंतराइयस्स अवट्ठिद- ) वेदगो । सेसाणं लद्धिकम्मंसाणं' अणुभागुदओ वड्डी वा हाणी वा अवट्ठाणं वा । णामा-गोदाणि जाणि परिणामपच्चया तेसिमबढिदवेदगो अणुभागेण । एवमुवसमियचारित्तपडिवज्जणविहाणं भणिदं ।
एदं चोवसमियं चारित्तं ण मोक्खकारणं, अंतोमुहुत्तकालादो उवरि णिच्छएण मोहोदयणिबंधणत्तादो । कधमवट्ठिदपरिणामो उवसंतकसाओ वीयराओ मोहे णिवदइ ? सहावदो । सो च उवसंतकसायस्स पडिवादो दुविहो, भवक्खयणिबंधणो उवसामणद्धाखयणिबंधणो चेदि । तत्थ भवक्खएण पडिवदिदस्स सव्वाणि करणाणि देवेसुप्पण्णपढमसमए चेव उग्घाडिदाणि । जाणि उदीरिज्जति कम्माणि ताणि उदयावलियं पवेसि.
ज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणके सर्व उपशान्तकालमें अवस्थित अनुभागोदयका वेदक है । निद्रा और प्रचलाका भी जब तक वेदक है तब तक अवस्थित वेदक ही है। अन्तरायकी पांच प्रकृतियोंका भी अवस्थित वेदक ही है।) शेष लब्धिकांशोंका अर्थात् चार ज्ञानावरण और तीन दर्शनावरण कर्मोंका, अनुभागोदय वृद्धि, हानि एवं अवस्थितिस्वरूप है । नाम-गोत्र जो परिणामप्रत्यय हैं उनका अनुभागसे अवस्थितवेदक होता है। इस प्रकार औपशमिक चारित्रकी प्राप्तिका विधान कहा गया है। यह औपशमिक चारित्र मोक्षका कारण नहीं है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्तकालसे ऊपर वह निश्चयतः मोहके उद्यका कारण होता है।
शंका-अवस्थित परिणामवाला उपशान्तकपायवीतराग मोहमें कैसे गिरता है? समाधान- स्वभावसे गिरता है।
उपशान्तकषायका वह प्रतिपात दो प्रकार है, भवक्षयनिबन्धन और उपशमनकालक्षयनिबन्धन । इनमें भवक्षयसे प्रतिपातको प्राप्त हुए जीवके देवों में उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही बन्ध, उदीरणा एवं संक्रमणादिरूप सब करण निज स्वरूपसे प्रवृत्त हो जाते हैं। जो कर्म उदीरणाको प्राप्त है वे उदयावलीमें प्रवेशित है जो उदीरणाको प्राप्त
गाणावरणादिकम्मपडिबद्धो होदि। जयध. अ प. १०३२. सोऽयमुपशांत कषायः प्रथमसमये आयुर्मोहनीयवर्जितानां ज्ञानावरणादिकर्मणां द्रव्यं सूक्ष्मसाम्परायचरमसमयापकृष्ट गुणश्रेणिद्रव्यादसंख्यातगुणमपकृष्य स्वगुणस्थानकालस्य संख्यातैकमागमात्रे आयामे उदयाव लिपथमसमयादारभ्य प्रक्षेपयोगेत्यादिगुणश्रेणिविधानेन निक्षिपति । लब्धि. ३०४ टीका.
जेसिं खओवसमपरिणामो अस्थि ते लद्धि कम्मंसा ति भष्णते, खओवसमलद्धी होण कम्मंसाणं लद्विकम्मरस ववएससिद्धीए विरोहाभावादो। जयध. अ. प. १०३३.
२ जयध. अ. प. १०३३. णामधुवोदयवारस सुभगति गोदेक विग्धपणगं च । केवल णिदाजुयलं चेदे परिणामपच्चया होति ॥ लब्धि. ३०६.
३ उवसंते पडिवडिदे भवक्खये देवपटमसमयम्हि । उग्घाडिदाणि सव्य वि करणाणि हवंति णियमेण ॥ लब्धि. ३०८.
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