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________________ १, ९-८, १४. ] चूलियाए सम्मत्तप्पत्तीए चारित पडिवज्जणविहाणं [ ३१५ पबिद्धा अणुवसंता, किट्टीओ सव्वाओ चैव अणुवसंताओ । तव्चदिरित्तं लोभसंजुलणस्स पदेसग्गं सव्वमुतसंतं । दुविहो लोभो सव्वो चेव उवसंतो । एसो चेव चरिमसमयबादरसांपराइगो' | तत्तो से काले पढमसमय सुहुमसांप इगो जादो | तेण पढमसमय हुमसांपराइएण अण्णा पढमट्ठिदी कदा | जां पढमसमय लोभवेद्गस्स पढमट्टिदी, तिस्से पढमट्ठिदीए इमा सुहुमसांपराइयस्स पढमट्ठिदी दुभागो थोवूणओ । पढमसमयसुहुमसांपराइगो किट्टीणमसंखेज्जे भागे वेदयदि । जाओ अपढम अचरिमेसु समएसु अपुव्वाओ किट्टीओ कदाओ ताओ सव्वाओ पढमसमए उदिष्णाओ । जाओ पढमसमए कदाओ किट्टीओ तासिमग्गग्गादो असंखेज्जदिभागं मोत्तृण, जाओ चरिमसमए कदाओ किट्टीओ तासिं च जहण्णय पहुड असंखेज्जदिभागं मोत्तूण, सेसाओ सव्वाओ किडीओ उदिणाओं । ताधे चैव सव्वासु किट्टीसु पदेसग्गमुवसामेदि गुणसेडीए । जे दोआवलियबद्धा शान्त हैं । इनके अतिरिक्त संज्वलनलोभका सब प्रदेशाग्र उपशान्त हो चुकता है । दो प्रकारका सब ही लोभ उपशान्त हो जाता है । यह ही अन्तिमसमयवर्ती बादरसाम्परायिक (अनिवृत्तिकरण ) है । इसके पश्चात् अनन्तर समय में प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक हो जाता है । उस प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके द्वारा अन्य प्रथमस्थिति की जाती है । प्रथम समय लोभवेदकके जो ( समस्त लोभवेदककालके दो त्रिभागमात्रसे कुछ अधिक ) प्रथमस्थिति थी उस प्रथमस्थितिके दो त्रिभागसे कुछ कम यह सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथमस्थिति होती है। प्रथम व अन्तिम समयको छोड़कर शेष समय में जो अपूर्व कृष्टियां की हैं वे सब प्रथम समय में उदीर्ण हो जाती हैं। जो कृष्टियां प्रथम समय में की गई हैं उनके उपरिम असंख्यातवें भाग को छोड़कर, और जो कृष्टियां अन्तिम समय में की गई हैं उनके जघन्यसे लेकर असंख्यातवें भाग को छोड़कर शेष सब कृष्टियां उदीर्ण हो जाती हैं । उसी समय सब कृष्टियोंके प्रदेशायको असंख्यातगुणित श्रेणीसे उपशान्त करता है । गुणश्रेणी में जो दो समय १ बादरलोभादिठिदी आवलिसेसे तिलोहमुवसंतं । णवकं किट्टि मुच्चा सो चरिमो थूलसंपराओ य ॥ लब्धि. २९५. २ प्रतिषु ' जादा ' इति पाठः । ३ से काले किट्टिस्स य पढमट्टिदिकारवेदगो होदि । लोहगपढमठिदीदी अद्धं किंणयं गत् ॥ २९६. जा पढमसमयलोभवेदगस्स पढमट्टिदी सव्विस्से एत्थतणलोभवेदगद्धाए सादिरेयवेत्तिभागमेचा तिस्से थोवूणदुभागमेचो इमो सहुमसांपराइयस्स पढमट्ठिदिविण्णासो त्ति भणिदं होदि ॥ जयध. अ. प. १०३०. ४ पढमे चरिमे समये कद किट्टीणग्गदो दु आदीदो। मुच्चा असंखभागं उदेदि सहुमादिमे सव्वे ॥ लब्धि. २९७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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