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________________ ३१४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं - [१, ९-८, १४. चरिमकिट्टी त्ति । एसो विदियतिभागो किट्टीकरणद्धा णाम । किट्टीकरणद्धार संखेजेसु भागेसु गदेसु लोभसंजुलणस्स अंतोमुहुत्तट्ठिदिगो बंधो । तिण्हं कम्माणं ट्ठिदिबंधो दिवसपुधत्तं । जाव किट्टीकरणद्धाए दुचरिमो ट्ठिदिबंधो ताव णामा-गोद-वेदणीयाणं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि ट्ठिदिबंधों । किट्टीकरणद्धाए चरिमो द्विदिबंधो लोभसंजुलणस्स अंतोमुहुत्तिओ । णाणावरण-दंसणावरण अंतराइयाणमहोरत्तस्संतो। णामा-गोद-वेदणीयाणं वेण्हं वस्साणमंतो। तिस्से किट्टीकरणद्धाए तिसु आवलियासु समऊणासु सेसासु दुविहो लोभो लोभसंजुलणे ण संकामिज्जदि, सत्याणे चेव उवसामिज्जदि' । किट्टीकरणद्वाए आवलिय-पडिआवलियाए सेसाए आगालपडिआगालो वोच्छिणो। पडिआवलियाए एक्कम्हि समए सेसे लोभसंजलणस्स जहण्णिया विदिउदीरणा' । ताधे चेव समऊणदोआवलियमेत्ता लोभसंजलणस्स समय प्रकार अन्तिम कृष्टि तक अनन्तगुणी श्रेणीका क्रम चला जाता है। इस द्वितीय त्रिभागका नाम कृष्टिकरणकाल है। कृष्टिकरणकालके संख्यात भागोंके वीत जानेपर संज्वलनलोभका अन्तर्मुहूर्त स्थितिवाला बन्ध होता है। तीन कर्मोंका स्थितिबन्ध दिवसपृथक्त्वमात्र होता है। जब तक कृष्टिकरणकालमें द्विचरम स्थितिबन्ध होता है तब तक नाम, गोत्र व वेदनीय, इनका स्थितिवन्ध संख्यात वर्षसहस्रमात्र होता है । कृष्टिकरणकालमें संज्वलनलोभका अन्तिम स्थितिवन्ध अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इनका स्थितिबन्ध कुछ कम अहोरात्रप्रमाण होता है। नाम, गोत्र व वेदनीय, इनका स्थितिबन्ध कुछ कम दो वर्षप्रमाण होता है। उस कृष्टिकरणकालमें एक समय कम तीन आवलियां शेष रहनेपर दो प्रकारका लोभ संज्वलनलोभमें संक्रमण नहीं करता, किन्तु स्वस्थानमें ही उपशान्त हो जाता है। कृष्टिकरणकालमें आवली और प्रत्यावलीके शेष रहनेपर आगाल व प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते हैं । प्रत्यावलीमें एक समय शेष रहनेपर संज्वलनलोभकी जघन्य स्थितिकी उदीरणा होती है। उस समयमें एक समय कम दो आवलिमात्र संज्वलनलोभके समयप्रबद्ध अनुपशान्त हैं, और सब ही कृष्टियां अनुप १ विदियद्धासंखेज्जाभागसु गदसु लोभठिदिबंधो । अंतोमुहुत्तमे दिवसपुधत्तं तिघादीणं ॥ लब्धि. २९.. २ किट्टीकरणद्धाए जाव दुचरिमं तु होदि ठिदिबंधो। वस्साणं संखेज्जसहस्साणि अघादिठिदिबंधो॥ लब्धि. २९२. ३ किट्टीयद्धाचरिमे लोभस्संतोमुहत्तियं बंधो। दिवसंतो घादीणं वेवरसंतो अघादीणं ॥ लब्धि. २९३. ४ विदियद्धा परिसेसे समऊणावलितियेसु लोभद्गं । सहाणे उवसमदि हु ण देदि संजलणलोहम्मि ॥ लब्धि. २९४. ५ संक्रमणावलौ गतायां प्रथमस्थित्यावलिद्वयेऽवशिष्टे आगालप्रत्यागाली व्युच्छिन्नी, प्रत्यावलिचरमसमयपर्यन्तमुदीरणा वर्तते ।। लब्धि. २९४ टीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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