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________________ १, ९-८ १४.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए चारित्तपडिवज्जणविहाणं . [३१३ से काले विदिय-तिभागस्स पढमसमए लोभसंजलणअणुभागसंतकम्मस्स जं जहण्णफद्दयं तस्स हेट्ठदो अणुभागकिट्टीओ करेदि । तासिं पमाणमेगफद्दयवग्गणाणमणंतभागो। पढमसमए बहुआओ किट्टीओ कदाओ। से काले अपुवाओ असंखेज्जगुणहीणाओ। एवं जाव विदियस्स तिभागस्स चरिमसमओ त्ति असंखजगुणहीणाओ। जं पदेसग्गं पढमसमए किट्टीओ करेंतेण किट्टीसु णिक्खित्तं तं थोवं । से काले असंखेज्जगुणं । एवं जाव चरिमसमओ त्ति असंखेज्जगुणं । पढमसमए जहण्णिगाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं, विदियाए पदेसग्गं विसेसहीणं । एवं जाव चरिमाए किट्टीए पदेसग्गं विसेसहीणं । विदियसमए जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं पढमसमयकदपढमकिट्टीए पदेसग्गादो असंखेज्जगुणं, विदियाए विसेसहीणं । एवं जाव ओघुक्कस्सियाए विसेसहणिं । उवरि फद्दयस्स आदिवग्गणाए अणंतगुणहीणं । उवरि सव्वत्थ विसेसहीणं । जधा विदियसमए तथा सेसेसु समएसु । तिव्य-मंददाए जहणिया किट्टी थोवा, विदियकिट्टी अणंतगुणा, तदियकिट्टी अणंतगुणा । एवमणंतगुणाए सेडीए गच्छदि जाव अनन्तरकालमें द्वितीय त्रिभागके प्रथम समयमें संज्वलनलोभके अनुभागसत्वका जो जघन्य स्पर्धक है उसके नीचे अनुभागकृष्टियोंको करता है। उन अनुभागकृष्टियोंका 'ण एक स्पर्धककी वर्गणाओका अनन्तवा भाग है। प्रथम समयम बहुत अनुभागकृष्टियां की जाती हैं । अनन्तर कालमें अपूर्व कृष्टियां असंख्यातगुणी हीन हैं । इस प्रकार द्वितीय त्रिभागके अन्तिम समय तक असंख्यातगुणी हीन होती गई हैं। कृष्टियां करनेवाला प्रथम समयमें जिस प्रदेशाग्रको कृष्टियों में निक्षिप्त करता है, वह स्तोक है। इसके अनन्तर समयमें वह असंख्यातगुणा होता है। इस प्रकार वह अन्तिम समय तक असंख्यातगुणा होता जाता है। प्रथम समयमें जघन्य कृष्टिमें प्रदेशाग्र बहुत, द्वितीय कृष्टिमें प्रदेशाग्र विशेष हीन, इस प्रकार अन्तिम कृष्टि तक प्रदेशाग्र विशेष हीन दिया जाता है। द्वितीय समयमें जघन्य कृष्टिमें प्रदेशाग्र प्रथम समयमें की गई प्रथम कृष्टिके प्रदेशाग्रसे असंख्यातगुणा, द्वितीय कृष्टि में प्रदेशाग्र विशेष हीन, इस प्रकार द्वितीय समयसम्बन्धी समस्त कृष्टियोंमें उत्कृष्ट कृष्टि तक प्रदेशाग्र विशेष हीन दिया जाता है। ऊपर स्पर्धककी आदि वर्गणामें अनन्तगुणा हीन और इससे ऊपर सर्वत्र विशेष हीन है। जैसा क्रम द्वितीय समय में है वैसा ही क्रम शेष समयामें भी है। तीव्रता व मन्दतासे जघन्य कृष्टि स्तोक है, द्वितीय कृष्टि अनंतगुणी है, तृतीय कृष्टि अनन्तगुणी है । इस १ विदियद्धे लोभावरफट्टयहेट्ठा करेदि रसकिडिं। इगिफयवग्गणगदसंखाणणंतभागमिदं ॥ लन्धि. २८३. २ प्रतिषु 'करंतिण ' इति पाठः । ३ जयध, अ. पत्र १०२८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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