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________________ ३१२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ९-८, १४. वोच्छिण्णो । समयाहियावलियाए सेसाए मायाए चरिमसमयउवसामओ मोत्तूण दोआवलियबंधे समऊणे । ताधे माया-लोहसंजलणाणं द्विदिबंधो मासो, सेसाणं कम्माणं द्विदिवंधो संखेज्जाणि वस्साणि । तदो से काले मायासंजुलणस्स बंधोदया वोच्छिण्णा । मायसंजुलणस्स पढमट्ठिदीए जा समऊणा आवलिया सेसा सा थिउक्कसंकमेण लोभे विपच्चिहिदि । ताधे चेव लोभसंजलणमोकड्डिदूण लोभस्स पढमद्विदिं करेदि । एत्तो पाए जा लोभवेदगद्धा तिस्से लोभवेदगद्धाए वे-त्तिभागपमाणं। ताधे लोभसंजलणस्स द्विदिबंधो मासो अंतोमुहुत्तूणो । सेसाणं कम्माण डिदिबंधो संखेजाणि वस्साणि । तदो संखेजेहि द्विदिवंधसहस्सेहि गदेहि तिस्से लोभस्स पढमट्टिदीए अद्धं गदं । तदो तस्स अद्धस्स चरिमसमए लोभसंजलणस्स हिदिबंधो दिवसपुधत्तं । सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो वस्स- " सहस्सपुधत्तं । व प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते हैं। एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर एक समय कम दो आवलिप्रमाण समयप्रबद्धोंको छोड़कर शेष (तीन प्रकारकी ) मायाका अन्तिम समयवर्ती उपशामक होता है। उस समय संज्वलन माया व लोभका स्थितिबन्ध एक मास और शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात ( सहस्र) वर्षमात्र होता है। तब उसी समयमें बन्ध व उदय व्युच्छिन्न हो जाते हैं। संज्वलनमायाकी प्रथमस्थितिमें जो एक समय कम आवली शेष रही है वह स्तिबुकसंक्रमणद्वारा लोभमें विपाकको प्राप्त होगी। ___ उसी समय लोभसंज्वलनका अपकर्षण कर लोभकी प्रथमस्थितिको करता है। यहांसे लेकर जो लोभवेदककाल है उस लोभवेदककालके दो त्रिभागप्रमाण लोभकी प्रथमस्थिति की जाती है। उस समय संज्वलनलोभका स्थितिवन्ध अन्तर्मुहूर्त कम एक मासप्रमाण होता है। शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातसहस्र वर्षमात्र होता है। तत्पश्चात् संख्यात स्थितिबन्धसहस्रोंके वीत जानेपर लोभकी उस प्रथमस्थितिका काल समाप्त होता है। तब उस कालके अन्तिम समयमें संज्वलनलोभका स्थितिबन्ध दिवसपृथक्त्वप्रमाण होता है। शेष कमोंका स्थितिबन्ध वर्षसहस्रपृथक्त्वमात्र होता है। १ मायाए पढमठिदी आवलिसेसे त्तिमायमुवसंतं । ण य णवकं तत्थंतिमबंधुदया होति मायाए ॥ लीब्ध. २८.. २ मायाए पढमठिदि सेसे समयाहियं तु आवलियं । मायालोहगबन्धो मासं सेसाण कोहआलाओ॥ लब्धि. २७८ शेषकर्मणां क्रोधवदालापः कर्तव्यः पूर्वोक्ताल्पबहुत्वेन संख्यातवर्षसहस्रमावर्षस्थितिरित्यर्थः । लब्धि. २७८ टीका. ३ से काले लोहस्स य पढमहिदिकारवेदगो होदि ॥ लब्धि. २८१. ४ पदमहिदिअइंते लोहस्स य होदि दिणुपुधत्तं तु । वस्ससहस्सपुधत्तं सेसाणं होदि ठिदिबंधो। लन्धि. २८२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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