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________________ १, ९-८, १४.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए चारित्तपडिवज्जणविहाणं ( ३११ अंतोमुहुत्तेण ऊणया । सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । सेसाणं कम्माणं विदिखंडयं' पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो। जं तं माणसंतकम्म उदयावलियाए समऊणाए तं मायाए थिउक्कसंकमेण उदए विपचिहिदि । जे माणस्स दोण्हमावलियाणं दुसमऊणाणं समयपबद्धा अणुवसंता, ते य गुणसेडीए उवसामिज्जमाणे दोहि आवलियाहि दुसमऊणाहि उवसामेदि। जं पदेसग्गं मायाए संकमदि तं समयं पडि विसेसहीणाए सेडीए संकमदि। एसा परूवणा मायाए पढमसमयउवसामयस्स । एत्तो द्विदिखंडयसहस्साणि बहूणि गदाणि । तदो मायाए पढमट्ठिदीए तिसु आवलियासु समऊणासु सेसासु दुविहा माया मायासंजलणे ण संछुभदि, लोभसंजलणे संछुभदि । पडिआवलियाए सेसाए आगाल-पडिआगालो माया और लोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तसे कम दो मासप्रमाण होता है। शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात वर्षसहस्रमात्र होता है। शेष कौका स्थितिकांडक पल्योपमके संख्यातवें भागमात्र होता है। एक समय कम उदयावलिमात्र जो यह मानका सत्व है वह स्तिबुकसक्रमणद्वारा मायाके उदयमे विपाकको प्राप्त होगा। मानके जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण समयप्रबद्ध अनुपशान्त हैं वे भी गुणश्रेणीद्वारा उपशमको प्राप्त होते हुए दो समय कम दो आवलियोंसे उपशान्त हो चुकते हैं । जो प्रदेशाग्र मायामें संक्रमण करता है वह प्रत्येक समयमें विशेष हीन श्रेणीके द्वारा संक्रमण करता है यह प्ररूपणा मायाके प्रथम समय उपशामककी है। यहांसे बहुत स्थितिकांडकसहस्र व्यतीत होते हैं। तब मायाकी प्रथमस्थितिमें एक समय कम तीन आवलियोंके शेष रहनेपर दो प्रकारकी माया (अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान) को संज्वलनमायामें नहीं स्थापित करता है, किन्तु संज्वलनलोभमें स्थापित करता है । प्रत्यावलीके शेष रहनेपर आगाल १ प्रतिषु हिदिबंधगो' इति पाठः । २ षट्वं. १, ७, १६. भा. ५, पृ. २१०. अनुदीर्णाया अनुदयप्राप्तायाः सत्कं यत्कर्मदलिकं सजातीयकृतावुदयप्राप्तायां समानकालस्थितौ संक्रमय्य चानुभवति यथा मनुजगतावृदयप्राप्तायां शेषगतित्रयमेकेन्द्रियजातो जातिचतुष्ट यमित्यादि स स्तिबुकसंक्रमः । कर्मप्रकृति पृ. १२५, गा. ७१. को स्थिवुकसंक्रमो णाम ? उदयसरूवेण समद्विदीए जो संकमो सो थिवुकसंकमो ति भण्णदे । जयध. अ. प. १०२५. ३ तदैव संचलनमानोच्छिष्टावलिनिषेकाः थिउकसंक्रमेण संज्वलनमायोदयावलिनिषेकेषु समस्थितिकेषु संक्रम्योदेष्यति ॥ लब्धि. २७७ टीका. ४ संज्वलनमानस्य समयोनद्वयावलिमात्रा नवकबंधसमय प्रबद्धाश्र तदैव समयोनद्वथावलिमात्रकालेनोपशाम्यते ॥ लब्धि. २७७ टीका. ५ मायदुगं संजलणगमायाए छुहदि जाव पदमठिदी। आवलितियं तु उवरिं संहदि हु लोहसंजलणे ॥ कन्धि, २७९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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