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________________ ३०८] छक्खंडागमे जीवाणं [१, ९-८, १४. पढमसमयअवेदस्स संजलणाणं विदिबंधो बत्तीस बस्साणि अंतोमुहुत्तणाणि । सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि' । पढमसमयअवेदो तिविहं कोहमुवसामेदि । सा चेव हेढाणिया पढमट्ठिदी हवदि । विदिबंधे पुण्णे पुण्णे सजलणाणमण्णो द्विदिबंधो विसेसहीणो होदि । सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जगुणहीणो । एदेण कमेण जाधे आवलिय-पडिआवलियाओ कोहसंजलणस्स सेसाओ ताधे विदियद्विदीदो आगाल-पडिआगालो वोच्छिण्णो, पडिआवलियादो चेव उदीरणा कोधसंजलणस्स । पडिआवलियाए एक्कम्हि समए सेसे कोहसंजलणस्स जहणिया द्विदि-उदीरणा। चउण्हं संजलणाणं द्विदिबंधो चत्तारि मासा, सेसाणं कम्मा द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । पडिआवलिया उदयावलियं पविस्समाणा पविट्ठा । ताधे चेव कोहसंजलणे दो आवलियबंधे दुसमऊणे मोत्तण सेसतिविहकोहपएसा उवसामिन्जमाणा उवसंता । कोहसंजलणे दुविहो कोहो ताव संछुब्भदि जाव कोहसंजलणस्स पढमहिदीए प्रथमसमयवर्ती अपगतवेदीके संज्वलनचतुष्कका स्थितिवन्ध अन्तर्मुहूर्त कम बत्तीस वर्ष और शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात वर्षसहस्रमात्र होता है । प्रथमसमयवर्ती अपगतवेदी अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन, इस तीन प्रकारके क्रोधको उपशमाता है। वही अधस्तनस्थानिक प्रथमस्थिति है। प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर संज्वलनचतुष्कका अन्य स्थितिवन्ध विशेष हीन होता है। शेष कौका स्थितिवन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। इस क्रमसे जव संज्वलनक्रोधकी आवली व प्रत्यावली ही शेष रहती है तर द्वितीयस्थितिसे आगाल प्रत्यागालोंकी व्युच्छित्ति हो जाती है। तब प्रत्यावली अर्थात् द्वितीय आवलीसे ही उदीरणा होती है । प्रत्यावलीमें एक समय शेष रहनेपर संज्वलनकोधकी जघन्य स्थितिकी उदीरणा होती है। इस समय चार संज्वलनकषायोंका स्थितिवन्ध चार मास और शेष कर्मोका स्थितिवन्ध संख्यात वर्षसहस्रमात्र होता है। प्रत्यावली उदयावली में प्रवेश करती हुई प्रविष्ट हो चुकी। उसी समय दो समय कम दो आवलिमात्र संज्वलनक्रोधके समयप्रबद्धोंको छोड़कर उपशान्त किये जानेवाले शेष तीन प्रकारके क्रोधप्रदेश उपशान्त हो चुकते हैं। संज्वलनक्रोधकी १ पढमावेदे संजलणाणं अंतोमूहुत्तपरिहीणं : वस्साणं बत्तीस संखसहस्सियरगाण ठिदिबंधो ॥ लब्धि. २६७. २ प्रतिषु 'पडिआवलिया' इति पाठः । ३ पढमावेदो तिविहं कोहं उसमदि पुखपढमठिदी। समयाहिय आवलियं जाव य तकालठिदिबंधो॥ संजलणच उक्काणं मासच उकं तु सेसपयडीणं । वस्साणं संखेजसहस्साणि हवंति णियमेण || लब्धि. २६८-२६९. ४ अप्रतौ 'पविरसमाणा विट्ठा', कप्रतौ ' पविस्समाण पविठ्ठा' इति पाठः । ५ अप्रतौ -संजलणा', करती 'संजलण- ' इति पाठः। ६ संज्वलनक्रोधस्य प्रथमस्थिती उच्छिष्टावलिमात्रावशेषायामुपशमनावलिचरगसमये क्रोधत्रयद्रव्यं समयोनदवावलिमात्रसमयप्रबद्धनवाबंधं मुक्त्वा पूर्वोक्तविधानेन चरमफालिरूपेण निवशेषं स्वस्थाने एवोपशमयति । लब्धि. २७१ टीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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