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३०४ ] छक्खंडागमे जीवठ्ठाणं
[१,९-८, १४. सामिज्जमाणयपदेसमाहप्पजाणावणट्ठमप्पाबहुगं कायव्वं । जावे पाए मोहणीयस्स हिदिबंधो संखेज्जवस्सद्विदिओ जादो ताधे पाए द्विदिबंधे पुण्णे पुण्णे अण्णो हिदिबंधो संखेजगुणहीणो'। मोहणीयवज्जाणं पुण कम्माणं णउंसयवेदमुवसामेंतस्स विदिबंधे पुण्णे पुण्णे अण्णो हिदिबंधो असंखेज्जगुणहीणो । अंतरकरणकदपढमसमयादो पहुडि मोहणीयस्स णत्थि द्विदिघादो अणुभागघादो वा । कुदो ? उवसंतपदेसग्गस्स द्विदि-अणुभागेहि चलणाभावा । उवसंतुवसामिज्जमाणमोहपयडीओ मोत्तूण सेसाणं दो घादा किण्ण होति ? ण, पुव्वमुवसंतपयडि-ट्ठिदिसंतकम्मादो पच्छा उवसंतपयडि हिदिसंतकम्मस्स संखेज्जगुणहीणत्तप्पसंगादो । एवं संखेज्जेसु विदिबंधसहस्सेसु गदेसु णउंसयवेदो उवसामिज्जमाणो उवसंतो।
उपशान्त किये जानेवाले प्रदेशका माहात्म्य जानने के लिये उक्त प्रकार अल्पब हुत्व करना चाहिये। जबसे लेकर मोहनीयका स्थितिबन्ध संख्यात वर्षमात्र स्थितिवाला होता है तबसे लेकर प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर अन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। पुनः नपुंसकवेदका उपशम करनेवाले के मोहनीयके अतिरिक्त शेष कौके प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर अन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा हीन होता है । अन्तरकरण करनेके पश्चात् प्रथम समयसे लेकर मोहनीयका स्थितिघात व अनुभागघात नहीं है, क्योंकि, उपशान्त हुए प्रदेशानके स्थिति व अनुभागसे चलन अर्थात् हानि-वृद्धिका अभाव है।
शंका-उपशान्त हुई व उपशमको प्राप्त होनेवाली मोहप्रकृतियोंको छोड़कर शेष प्रकृतियोंके उक्त दो घात क्यों नहीं होते?
समाधान नहीं, क्योंकि, ऐसा होनेपर पूर्वमें उपशान्त हुई प्रकृतियोंके स्थितिसत्त्वसे पीछे उपशान्त होनेवाली प्रकृतियोंके स्थितिसत्त्वको संख्यातगुणी हीनताका प्रसंग आवेगा।
इस प्रकार संख्यात स्थितिवन्धसहस्रोंके व्यतीत होनेपर उपशमको प्राप्त कराया जानेवाला नपुंसकवेद उपशान्त हो जाता है ।
१ प्रतिषु ' जाधे' इति पाठः ।
२ जत्तो पाये होदि हु ठिदिबंधो संखवरसमेत तु । तची संखगुणूणं बंधोसरणंतु पयडीणं ॥ लब्धि. २५५.
३ अंतरकरणावर ठिदिरसखंडा ण मोहणीयस्स । ठिदिबंधोसरणं पुण संखेज्जगुणेण हीणकम ॥ लब्धि २५४.
४ एवं संखेज्जेसु द्विदिबंधसहस्सगेसु तीदेसु । संदुवसमदे तो इस्थि च तहेव उवसमदि ।। लब्धि. २५८.
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