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________________ १, ९–८, १४.] चूलियाए सम्मत्तप्पत्तीए चारित्तपडिवज्जणविहाणं [ ३०३ जाईए होदिति वत्तुं जुत्तं, ण अण्णत्थ, अणवत्थावत्तदो । तदो एत्थ बंधसमय पहुडि छसु आवलियासु आइच्छिदासु उदीरणा होदि त्ति घेत्तव्यं । अंतरादो पढमसमयकदादो पाएण गउंसयवेदस्स आउत्तकरणउवसामओ, सेसाणं कम्माणं ण किंचि' उवसामेदि । जं पदमसमए पदेसग्गमुवसामेदि तं थोत्रं । जं विदियसमए उवसामेदि तं असंखेज्जगुणं । जं तदियसमए पदेसग्गमुवसामेदि तमसंखेज्जगुणं । एवमसंखेज्जगुणाए सेडीए उवसामेदि जाव उवसंतमिदि । उंसयवेदस्स पढमसमयउवसामयस्स जस्स वा तस्स वा कम्मस्स पदेसग्गस्स उदीरणा थोवा, उदओ असंखेज्जगुणो । णउंसयवेदस्स पदेसग्गमण्णपयडिं संकामिज्जमाणयमसंखेजगुणं, उवसामिज्जमानयमसंखे जगुणं । (एवं) जाव चरिमसमयउवसंतेत्ति उव जाति में होता है, इस प्रकार कहना उचित है । परन्तु एक जातिमें प्राप्त धर्म अन्यत्र होता है, इस प्रकार कहना उचित नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर अनवस्था दोष आता है । इसी कारण यहां बन्धसमय से लेकर छह आवलियोंका अतिक्रमण होनेपर ही उदीरणा होती है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । अन्तरकरणके पश्चात् प्रथम समयसे लेकर अनिवृत्तिकरणसंयत नपुंसकवेदका आवृत्तकरणउपशामक होता है, शेष कर्मोंका किंचित् भी उपशम नहीं करता है । जिस प्रदेशाको प्रथम समय में उपशान्त करता है वह स्तोक है। जिसे द्वितीय समय में उपशान्त करता है वह असंख्यातगुणा है । जिस प्रदेशाग्रको तृतीय समय में उपशान्त करता है वह उससे असंख्यातगुणा है । इस प्रकार असंख्यातगुणी श्रेणी से उमशान्त होने तक उपशमाता है। नपुंसकवेदके प्रथमसमयवर्ती उपशामकके जिस किसी भी कर्म के प्रदेशाग्रकी उदीरणा स्तोक है। उससे उदय असंख्यातगुणा है । अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण कराये जानेवाले नपुंसक वेदका प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । इससे उपशान्त कराया जानेवाला प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । इस प्रकार उपशान्त होनेके अन्तिम समय तक १ अ आप्रत्योः 'बंध-' इति पाठः । २ किमाउत्तकरणं णाम ? आउत्तकरणमुज्जत करणं पारंभकरणामिदि एयट्टो । तात्पर्येण नपुंसक वेदमितः प्रभवत्युपशमयतीत्यर्थः । जयध. अ. प. १०१९. ३ अ प्रतौ 'कम्माणं किंचि ' इति पाठः । ४ अंतरकदपढमादो पडिसमयमसंखगुणविहाणकमेणुत्रसामेदि हु संदं उवसंतं जाणण च अण्णं ॥ लब्धि. २५२. ५ संदादिमवसमगे इट्ठस्स उदीरणा य उदओ य । संदादो संकामिदं उवसमियमसंखगुणियकमा || लब्धि. २५३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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