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________________ १, ९-८, १४.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए चारित्तपडिवज्जणविहाणं [ ३०५ णउंसयवेदे उवसंते से काले इत्थिवेदस्स उवसामगो, पुरिसवेदोदएण उवसमसेडिमारोहणादो । ताधे चेव अपुरो ट्ठिदिखंडओ, अपुग्यो अणुभागखंडओ, अपुरो चरिमद्विदिवंधो पत्थिदो । जेण,कमेण णउंसयवेदो उवसामिदो तेणेव कमेण इथिवेदं पि गुणसेडीए उवसामेदि । एवं द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु इत्थिवेदं च उवसामेदि । एवं द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु इत्थिवेदस्स उवसामगद्धाए संखेज्जदिभागे गदे तदोणाणावरण-दंसणावरणअंतराइयाणं संखेज्जवस्सट्ठिदिगो बंधो होदि । जाधे संखेज्जवस्सट्ठिदिगो बंधो ताधे चेव एदासिं तिण्हं मूलपयडीणं केवलणाणावरणवज्जाओ सेसाओ जाओ उत्तरपयडीओ तासिमेगट्ठाणिओ बंधो । जत्तो पाए णाणावरण-दंसणावरण-अंतराइयाणं संखेज्जवस्सद्विदिओ बंधो तम्हि पुण्णे जो अण्णो ट्ठिदिबंधो सो संखेज्जगुणहीणो। तम्हि समए सव्वकम्माणमप्पाचहुअं । तं जहा- सव्वत्थोवो मोहणीयस्स द्विदिवंधो । णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणं द्विदिबंधो संखेज्जगुणो। णामा गोदाणं द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । वेदणीयस्स हिदिबंधो विसेसाहिओ। एदेण कमेण संखेज्जेसु हिदिबंधसहस्सेसु गदेसु नपुंसकवेदके उपशान्त हो जाने पर अनन्तर कालमें स्त्रीवेदका उपशामक होता है, क्योंकि पुरुषवेदके उदयसे उपशमश्रेणीका आरोहण हआ था। उसी समयमें अपूर्व स्थितिकांडक, अपूर्व अनुभागकांडक और अपूर्व अन्तिम स्थितिवन्ध प्रारम्भ होता है । जिस क्रमसे नपुंसकवेदका उपशम किया था उसी क्रमसे स्त्रीवेदको भी गुणश्रेणीसे उपशमाता है। इस प्रकार स्थितिबन्धसहस्रोंके व्यतीत होने पर वह स्त्रीवेदको भी उपशमाता है। इस प्रकार स्थितिबन्धसहस्रोंके व्यतीत होनेपर जब स्त्रीवेदके उपशामककालका संख्यातवां भाग वीत जाता है तब ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इनका संख्यात वर्षकी स्थितिवाला यन्ध होता है। जिस समय में संख्यात वर्षकी स्थितिवाला वन्ध होता है उसी समय ही इन तीन मूल प्रकृतियोंकी केवलज्ञानावरण को छोड़कर जो शेष उत्तरप्रकृतियां हैं उनका एकस्थानिक अनुभागवन्ध होने लगता है । जहांसे लेकर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इनका संख्यात वर्षकी स्थितिवाला बन्ध है उसके पूर्ण होनेपर जो अन्य बन्ध होता है वह संख्यातगुणा हीन होता है। उस समयमें सब कर्मोंका अल्पबहुत्व इस प्रकार है-मोहनीयका स्थितिवन्ध सवसे स्तोक है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इनका स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। नाम गोत्रका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। वेदनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इस क्रमसे संख्यात १ प्रतिषु ' कम्मेण ' इति पाठ । २ प्रतिषु ' इतिथवेदस्त' इति पाठः । ३ थीयद्धा संखेज्जदिमागेपगदे तिघादिठिदिबंधो। संखतुवं रसबंधो केवलणाणेगठाणं तु ॥ लब्धि. २५९. ४ प्रतिषु 'जथो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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