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________________ १, ९-८, १४.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए चारित्तपडिवजणविहाणं [३०१ याओ ठवेदूण अंतरकरणं करेदि । पढमहिदीदो संखेज्जगुणाओ हिदीओ एदेसि दोण्हं कम्माणमंतरट्ठमागाइदाओ । सेसाणमेक्कारसहं कसायाणमट्टण्हं णोकसायाणं च उदयावलियं मोत्तूण अंतरं करेदि उपरि अंतरं समट्ठिदी, हेट्ठा विसमद्विदी। जावे अंतरमुक्कीरिदुमाढतं ताधे अण्णो द्विदिबंधो, अण्णो ट्ठिदिखंडओ, अण्णो अणुभागखंडओ च आढत्तो । अणुभागखंडयसहस्सेसु गदेसु अण्णो अणुभागखंडओ, सो च हिदिखंडओ, सो च द्विदिवधो, अंतरस्स उक्कीरणद्धा च समगं पुण्णाणि । अंतरं करेमाणस्स जे कम्मंसा बझंति, वेदिज्जति य, तेसिं कम्माणमंतरविदीओ उक्कीरंतो तासिं द्विदीणं पदेसग्गं बंधपयडीणं पढमहिदीए च देदि', विदियट्टिदीए च देदि । जे कम्मंसा ण अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थापित कर अन्तरकरण करता है। अन्तरके लिये इन दोनों कर्मोकी स्थितियां प्रथमस्थितियोंसे संख्यातगुणी ग्रहण की जाती हैं। शेष ग्यारह कषाय और आठ नोकषायोंकी उदयावलीको छोड़कर अन्तर करता है। अन्तरसे ऊपरके उदय व अनुदयरूप सब कषायों के निषेक सदृश है। परन्तु अन्तरके नीचे उदय व अनुदयरूप प्रकृति योंके निषेक प्रथमस्थितिके विषम होनेसे परस्परमें समान नहीं है। जब उक्त निषेकोंको उत्कीर्ण करनेके लिये अन्तरका प्रारम्भ होता है तब अन्य स्थितिबन्ध, अन्य स्थितिकांडक और अन्य ही अनुभागकांडकका आरम्भ होता है। अनुभागकांडकसहस्रोंके वीतनेपर अन्य अनुभागकाण्डक तथा वही स्थितिकांडक, वही स्थितिबन्ध और अन्तरका उत्कीरणकाल, ये एक साथ पूर्णताको प्राप्त होते हैं। अन्तरको करनेवालेके जो कोश बंधते हैं और उदयमें रहते हैं उन कर्मोंकी अन्तरस्थितियोंको उत्कीर्ण करता हुआ उन स्थितियोंके प्रदेशाग्रको वन्धप्रकृतियोंकी प्रथमस्थितिमें भी देता है और द्वितीयस्थितिमें भी देता है। जो कशि न बंधते हैं और न उदयको ही प्राप्त हैं, उनके उत्कीर्ण १ संजलणाणं एवं वेदाणेक उदेदि तं दोण्हं । सेसाणं पढमहिदि ठवेदि अंतोमुहुत्त आवलियं ॥ लाडेध २.४२. २ उवरि सम उकीरइ हेटा विसमं तु मन्शिपमाणं । तदुपरि पढमठिदीदो संखेज्जगुणं हो णियमा॥ लब्धि. २४३. उवरि समद्विदि अंतरं हेहा विसमाहिदि अंतरं । सब्वेसिमेव कसायणोकसायाणमुदहल्लाणमणुदइलाण च अंतरं चरिमहिदी सरिसी चेव होई, विदियहिदीए पदमणिसे यस्स सम्बत्थ सरिसभावेणावट्ठाणदंसणादो। तदो उवरि समद्विदि अंतरमिदि वृत्तं । हेहा वुण विसरिसमंतरं होई, अणुदइल्लाणं सब्बेसि पि सरिसत्ते वि उदइल्लाणमण्णदखेदसंजलणाणमंतोमुत्तमेत्तपढमहिदीदो परदो अंतरपढमद्विदीए समवहाणदसणादो । तदो पढमहिदीए विसरिसत्तमस्सियूण हेहा विसमद्विदियमंतरं होदि ति मणिदं । जयध. अ. प. १०१४. ३ अंतरपढमे अण्णो ठिदिबंधो ठिदिरसाण खंडो य । एयहिदिखंडुकीरणकाले अंतरसमत्ती॥ लब्धि. २४४, ४ अ-प्रतौ ' अशुभागखंडयंससहस्सेसु' आप्रतौ 'अणुभागखंडयंसहस्सेसु' इति पाठः । ५ आप्रतौ ' कडेदि ' मप्रतौ ' चढेदि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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